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________________ जाऊँ। · · 'फिर, तीर्थंकर की साधना केवल अपनी निजी, आत्मिक मुक्ति पर तो समाप्त नहीं होती, वह सर्व की मुक्ति का मार्ग बन कर लोक में प्रकाशित होती हैं। हर तीर्थंकर सदा एक बार तो अपनी आत्म-प्राप्ति के लिए अवश्य, अरण्य की तपोभूमि में निर्वासित हो गया, पर सिद्धि पाने पर उसकी सर्व-व्याप्ति के लिए लोक में लौट आया। लोक में उसका समवशरण रचा गया, जहां सर्व को समत्व, समाधान और शरण प्राप्त हुई। और परम वीतरागी होते हुए भी, अंतिम साँस तक उसके श्रीमुख से सकल चराचर का सम्पूर्ण कल्याण करने वाली दिव्यध्वनि प्रवाहित होती रही। इसी को मैं ज्ञानालोकित व्यष्टि में से, समष्टि में धर्म के प्रवाहन, प्रसार और प्रस्थापना की मौलिक प्रक्रिया मानता हूँ !' 'तो तुम अपने वैयक्तिक निर्वाण में खो नहीं जाओगे, सर्व के परित्राण के लिए लौट कर लोक में आओगे. . . .?' ___वह नियति और अस्मिता तो मैं लेकर जन्मा हूँ, तात! मैं कौन होता हूँ, जो अपने निर्णय से, उससे बच सकूँ। महासत्ता ने मेरी आन्तरिक संरचना में ही, इस अनिवार्य सम्भावना को नियोजित कर दिया है। मेरे व्यक्तित्व को पहले स्वयम् साधना की तपाग्नि से, सम्पूर्ण शुद्ध और सर्व का आरपार दर्पण हो जाना पड़ेगा। सत्ता और अनैकान्तिकता, मेरे व्यक्तित्व में जाज्वल्यमान और मूर्तिमान होगी। जब मैं भीतर-बाहर सम्पूर्ण निरावरण हो जाऊँगा, तो सत्य स्वयमेव ही यहाँ अनावरण हो उठेगा। तब आपोआप ही, नित-नव्य सत्य का सूर्य लोक में संचरण करने लगेगा। भगवान मानव होकर पृथ्वी पर चलेंगे : मानव भगवान होकर अन्तरिक्षों में विहार करेगा। भगवत्ता मानवता का वरण करेगी, और मानवता भगवत्ता को यहां साकार करके उसे धन्य और कृतार्थ करेगी। . . . तब कण-कण में एक ऐसी क्रान्ति और अतिक्रान्ति चुपचाप प्रज्ज्वलित हो उठेगी, जो समकालीन संसार में, एक तत्कालीन अभीष्ट परिवर्तन घटित करेगी; पर समस्त विश्व में स्वाभाविक वस्तु-धर्म के व्यक्तिकरण, और निखिल के आमूल रूपान्तर को घटित होने में, सहस्राब्दियाँ लग सकती हैं। आने वाले युगों में जो भी क्रान्तिकारी योगी, तीर्थंकर, अवतार आयेंगे, वे प्रकट में अधूरे और परस्पर-पूरक के बजाय भले ही विरोधी दीखें, पर मूलतः और वस्तुतः वे इसी एकमेव वैश्विक अतिक्रान्ति और रूपान्तर के संवाहक और सहयोगी होंगे। एक ही महाविक्रिया की वे विविधमुखी प्रक्रियाएं होंगी। • • “एक ही श्रृंखला की कड़ियाँ · · !' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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