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'साधु-साधु बेटा, बहुत मौलिक और नयी बात कही तुमने । परम्परागत श्रमणों और शास्त्रों से तो ऐसा समूल समाधान नहीं मिलता। कोई अर्हत् और प्रगत शास्ता ही ऐसी बात कह सकता है।'
'छोड़िये उस अहंत् शास्ता को अपने रास्ते पर। मैं तो केवल आपका, वैशाली का, और इक्ष्वाकुओं का एक योग्य बेटा भर होना चाहता हूँ। बोलो बापू, अपने बच्चे से और क्या चाहते हो . . ?'
· · 'सुन कर एकाएक मां खिल कर तरल हो आई। बोली : 'बच्चा इन्हीं का नहीं, मेरा भी तो है। और मैं चाहती हूँ कि वह अब चल कर हमारे साथ भोजन करे। बहुत अबेर हो गई, लालू ! मेरा पयस् तेरी प्रतीक्षा में है।' ___ 'भोजन तो, माँ, तुम्हारे आशीर्वाद से, मेरे भीतर सदा होता ही रहता है। तुम्हारे पयोधर से एक बार पिया पयस् क्या चुक सकता है ? वह तो मेरे अणुअणु को निरन्तर आप्लावित किये है। आज और कोई नया पयस् पिलाओगी क्या? तो प्रस्तुत है, तुम्हारा बेटा!'
सुन कर माँ का सारा चेहरा तरल और कातर हो आया। · · बरसों बाद आज दोपहर माँ और पिता के साथ भोजन किया। बहुत मौलिक और शाश्वत लगा आज के इस प्रसाद का स्वाद । माँ के आनन्द का पार नहीं है। उदास तो वे किंचित् भी नहीं लगीं। बल्कि आज जैसा उल्फुल्लित उन्हें शायद ही पहले कभी देखा हो।...
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