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________________ ३०५ उसकी विरोधिनी नहीं, सम्वादिनी और समावेशिनी है । जो शास्त्र और वाङ्गमय सूत्रबद्ध होकर जड़ हो गया है, उसे तुम अपने उद्बोधन से मुक्त और जीवन्त किये दे रहे हो । बोलते हो तो जैसे आपोआप परदे उठते चले जाते हैं, और प्रवाही सत्ता भीतरी चेतना में बहती चली आती है, उत्तरोत्तर अपने अनन्त रूप में प्रकाशित होती चली जाती है।' __• • ‘और मैंने देखा कि मां निश्चल, स्तम्भित, मुग्ध, एकटक मुझे निहार रही हैं । और उनके अश्रु-धौत मुखमण्डल पर एक अपूर्व सौन्दर्य और शान्ति की आभा झलमला उठी है। ___'एक बात पूर्वी बेटा, तुम जो नयी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हो, उसे कौन लाये, कौन उसका विधान करे? तुम तो आरण्यक हो कर, अपनी आत्मा के एकान्त में निर्वासित हो जाना चाहते हो।' ___'मेरी व्यवस्था धर्म की है, वह वस्तु-धर्म पर आधारित है। वस्तु-धर्म तो अपनी जगह नित्य विद्यमान है। तो लोक में उसकी व्यवस्था को बाहर से स्थापित नहीं किया जा सकता। यह जो ज्ञाता-द्रष्टा मनुष्य है न, वह अपने आत्मधर्म को जाने, उसमें स्थित हो, आसपास के व्यक्तियों और वस्तुओं के साथ स्वाभाविक और सत्य सम्बन्ध में जिये, तो वह व्यवस्था आपोआप मानव-इकाई में से प्रकट होकर, सर्वत्र प्रसारित होती चली जायेगी। बाहर के कृत्रिम शासनविधान, नियम-कानून, सेना और कोट्टपालिका के बल पर जो भी व्यवस्थाएँ रची जाती हैं, उनमें व्यक्तियों के न्यस्त स्वार्थ और कषाय अनजाने ही बद्धमूल होते हैं, सो वैसी व्यवस्थाएँ अपने आप में विकृति और विभाव के बीज छुपाये रहती हैं। फलतः कालान्तर में वे विकृत और अधर्मी होकर नष्ट हो जाती हैं। प्रश्न यह संगत है कि कौन वह मौलिक धर्म की व्यवस्था लाये? · · वही जो स्वयम् धर्म-स्वरूप हो जाये, जो धर्म का स्रोत हो जाये। तब वैसी व्यवस्था, वैसे एक व्यक्ति की चेतना में से नदी की तरह प्रवाहित हो कर, समस्त लोकजीवन में व्याप जाती है। उसमें भिद कर, सिंच कर, उसके स्वाभाविक धर्म को लोक के कर्म, सम्बन्ध और व्यापारों में प्रफुल्लित कर देती है।' ___ तो कहना चाहते हो कि, तुम अपनी एकान्त आरण्यक साधनों में लीन हो रहोगे, और यहाँ धर्म अपने आप फलीभूत हो जायेगा?' 'एकान्त शब्द से किसी भ्रान्ति में न पड़ें, बापू । एकान्त में जाना चाहता हूँ, अपने अनैकान्तिक स्वरूप में स्थित होकर, उससे प्रकाशित हो उठने के लिए। एकाकी हो रहना चाहता हूँ, एकमेव हो जाने के लिए, ताकि स्वतः सर्वमेव हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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