SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ 'सदा से जो चलता आया है, वही सत्य और इष्ट हो, तो जगत में इतने दुःख की सृष्टि किस लिए? भाव ही वस्तु का असली स्वभाव है। और वस्तु के स्वभाव को हम जानें, उसमें जियें, तो फिर जगत में विभाव और अभाव का त्रास हो ही क्यों? वस्तु का स्वभाव-राज्य स्वतंत्र आत्मदान से चलता है, अधिकार और सौदे के आदान-प्रदान से नहीं। वस्तु के मूल सत्य और उसके व्यवहार को एक हो जाना होगा। तभी लोक में जीवों के निर्वैर प्रेम का अहिंसक और सत्य राज्य स्थापित हो सकता है।' ___'श्रमण भगवन्तों ने निश्चय और व्यवहार का भेद तो किया ही है।' 'वह श्रुतज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट सहूलियत और सुविधा का मिथ्या-दृष्टि विधान है। . . . यह जो व्यवहार सम्यक्-दर्शन कहा जाता है न, यह सत्य को सामने और सीधे लेकर जीने से जो भयभीत हैं, उनका पलायनवादी विधान है। व्यवहार सम्यक्-दर्शन, अपने भीतर छुपे मोह की गर्मी से सत्य को सहलाकर सुलाये रखने का एक छद्म व्यापार है। · · वह पाखंड का एक सुन्दर और कारगर हथियार है !' 'श्रमण भगवन्तों ने तो व्यवहार को निश्चय की सीढ़ी कहा है, वर्द्धमान !' 'सत्य सीढ़ियाँ चढ़ कर प्रकट नहीं होता, बापू। वह तो अन्तर्मुहुर्त मात्र में होने वाला साक्षात्कार है । वह एक आकस्मिक और अखण्ड विस्फोट है। ये सीढ़ियाँ, सुविधाजीवी स्वार्थियों का, अपने असत्य और अनाचार को धर्म की आड़ में छपा कर अनर्गल चलाने का षड्यंत्री आविष्कार है। तथाकथित व्यवहार-सम्यक्दर्शन की पक्की सड़क से चल कर, प्रवाही सत्य तक कैसे पहुँचा जा सकता है ?' 'वर्द्धमान, क्या तुम नहीं मानते कि मनुष्य को यहाँ जो कुछ प्राप्त है, यह जो सुखी-दुखी, धनी-निर्धन, ऊँच-नीच के भेद दिखाई पड़ते हैं, ये सब मानवों के पूर्वोपार्जित पुण्य-पाप के फल हैं ? अरिहंतो ने इस कर्म-विधान को ही लोक की परिचालना का परम नियम कहा है।' 'अरिहंतों ने, जो होता है, जो यथार्थ है, केवल उसका कथन किया है। मैं कई बार कह चुका, कर्म-बन्ध एक नकारात्मक शक्ति है, वह विधायक विधान नहीं। वह केवल तथ्य की अराजकता है, सत्य की व्यवस्था नहीं। सत्य की व्यवस्था, समवादी और सम्वादी ही हो सकती है। तथ्य के वैषम्य को अपने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy