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________________ ३०३ आत्म-संकल्प से छिन्न-भिन्न करके, हमें सत्य की समता-मूलक व्यवस्था स्थापित करनी है। जिनेश्वरों ने कर्म को काटने को कहा है, पूजने को नहीं। पुण्य और पाप दोनों ही मूलतः कषाय हैं। वे दोनों ही बन्धक हैं, मुक्तिदायक नहीं। नकारात्मक कर्माश्रव से यदि लोक में वैषम्य, वर्ग और भेद की सृष्टि हुई है, तो वह धर्म्य कह कर पाथे चढ़ाने योग्य नहीं, मिटाने योग्य है। पुण्योदय यदि किसी के हुआ है, तो वह अकेले भोगने के लिए नहीं, सबमें बाँट देने के लिए है। उस तरह पुण्य बन्धक कषाय न रह कर, मुक्तिदायक स्वभाव हो जाता है। जो यहाँ पुण्य को अपना न्यायोचित उपार्जन समझ कर, उसे अपने ठेके की वस्तु बनाते हैं, और उसे गौरवपूर्वक अकेले भोग कर, अपने अहं और स्वार्थ को पोषते हैं, वे अपने और अन्यों के लिए, पाप का नया और चक्रवृद्धि नरक ही रचते हैं । यहाँ अधिकांश में पुण्य को मैंने पाप में प्रतिफलित होते ही देखा है। तथाकथित पुण्यवानों को लोक के सबसे बड़े पापी' होते देखा है। पुण्य आख़िर तो कषाय की ही सन्तान है, उसे पाला और पूजा कैसे जा सकता है, उसे तो संहारा ही जा सकता है । व्यवहारसम्यकदर्शन का मुखौटा पहन कर, पुण्य यहाँ शोषण का एक अमोघ, सुन्दर और वैध हथियार बना है। वह पूजा-प्रतिष्ठा के सिंहासन पर बैठ गया है। · · ·सदियों से धर्म की आड़ में चल रहे पुण्य के इस षड्यंत्र का मैं भंडाफोड़ कर देना चाहता हूँ । पुण्य के इस हिरण्मय घट का विस्फोट करके मैं उसमें छुपे कषाय के हिरण्यकश्यपु का सदा के लिए वध कर देना चाहता हूँ। ताकि सत्य प्रकट हो, और लोक में सर्व का समत्व-मूलक अभ्युदय हो।' 'यह तो कुछ अपूर्व सुन रहा हूँ, आयुष्यमान् ।' 'सत्य सदा अपूर्व ही होता है, बापू । सत्ता अनैकान्तिक और अनन्त है; सो वह अपने हर नये प्रकटीकरण में अपूर्व ही हो सकती है। अब तक का हर तीर्थंकर, पिछले से अपूर्व हुआ, तो अगला भी अपूर्व होगा ही।' 'अरिहन्तों का तो यही दर्शन सुनता आया हूँ, आयुष्यमान्, कि तत्वतः यहाँ कोई व्यक्ति अन्य व्यक्ति का, कोई पदार्थ अन्य पदार्थ का उपकारक नहीं हो सकता। अनन्त वस्तु और अनन्त व्यक्ति हैं यहाँ, और सबका अपना स्वतन्त्र परिणमन है। सब अपने स्वभाव में रम्माण और क्रियमाण हैं, पर में कोई क्रिया या परोपकार तत्वतः ही सम्भव नहीं। स्व-पर के भेद-विज्ञान को क्या तुम मिथ्या मानते हो? जिसे जिनेश्वरों ने त्रिकाल असम्भव कहा, उसे सम्भव कहना और बनाने की बात करना, क्या मिथ्या-दर्शन ही नहीं होगा?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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