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________________ ३०१ 'बापू, देखते तो हैं, कि वर्द्धमान ने बचपन से जो चाहा, चुपचाप करता ही रहा है, कहा तो उसने कभी नहीं। आप सबने कहा कि बोलो, तो मैं पहली बार बोला भी वह, जो मैं किया चाहता हूँ, और जो अनिवार्य है !' 'चक्रवर्तित्व के चिह्न ललाट और पगतलियों पर लेकर जन्मे हो, बेटा, तो अपने स्वप्न का वह चक्रवतित्व, लोक के बीच खड़े हो कर, लोक में स्थापित करो। निर्जन कान्तारों में निर्वासित हो कर वह कैसे सम्भव होगा?' 'मेरा चक्रवर्तित्व आपके मानचित्रों के लोक तक सीमित नहीं रह सकता, महाराज ! चक्रवर्ती मैं लोक-लोकान्तर, दिग-दिगन्तर, काल-कालान्तर का ही हो सकता हूँ। और दिक्काल का चक्रवर्ती दिगम्बर ही हो सकता है। और वह मैं हो जाना चाहता हूँ।' 'मान · · · !' एक चिहुक के साथ, दोनों हाथों से मुंह ढाँप कर माँ पीठिका पर ढुलक रहीं । उनकी छाती में दबती सिसकियों को मैं सुन सका। '. - ‘इस चोरी के राज्य का एक लत्ता भी जब तक मेरे तन पर है, अचौर्य का साम्राज्य स्थापित नहीं हो सकता। यह महल, यह वैशाली, ये सारे राज्य, वर्तमान का यह सारा लोक, चोरी के प्रपंच पर ही टिका हुआ है। चोरों की साठ-गाँठ से प्रतिफलित है यह सारा ऐश्वर्य। मेरे तन पर यह चोरी का माहार्घ उत्तरीय पड़ा हुआ है। चोर निरावरण सत्य का सामना कैसे कर सकता है ! नग्न होकर ही, नग्न सत्य के आमने-सामने खड़ा हुआ जा सकता है।' 'तुम्हारे अकेले के नग्न हो जाने से क्या होगा, बेटा ?' 'आरपार नग्न जब खड़ा हो जाऊँगा लोक में, तो उस दर्पण के सामने सबके छल-छद्म और अज्ञान के कपड़े आपोआप उतर जायेंगे, तात ! उसके बाद जो कपड़े बच रहेंगे, वे चोरी के नहीं, असली और अपने होंगे। वे मानो आवश्यकतानुसार अपने ही भीतर से बुन कर, ऊपर आ रहेंगे। जैसे पराग पर पंखुड़ियाँ : बादाम की गिरी पर उसका रक्षक छिलका · · ।' 'यह तो भाव की बात हुई, तो निश्चय ही भाव की शुद्धता ऐसी रहे । स्थूल पदार्थ का राज्य और व्यापार तो अधिकार और आदान-प्रदान पर ही सदा से चलता आया है।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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