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प्रियकारिणी त्रिशला के शयन-कक्ष की रत्न-विभा में हज़ारों आँखें खुल कर, स्तब्ध ताकती रह गईं।
'किसे दान कर कर देना चाहते हो?'
‘लोक को ! जो समस्त लोक का है, वह उसी के पास लौट जाये। लोक स्वयम् लोक का है, वस्तु स्वयम् वस्तु की है। यहाँ कुछ भी किसी का नहीं। मेरा भी नहीं, आपका भी नहीं, अन्य किसी का नहीं। सब अपना-अपना है।'
'वैशाली को तो तुमने सत्यानाश के कगार पर खड़ा कर ही दिया है। वह अब सिर्फ तुम्हारे आख़िरी धक्के के इन्तज़ार में है। तब बेचारा नन्द्यावर्त कहाँ रहेगा?' _____ महारानी-माँ सामने के रत्नासन पर शिलीभूत, अपलक मुझे समचा पी जाना चाहती थीं, कि चुप हो जाऊँ।
'यदि यह प्रतीति आप सब पा गये हैं, तो शुभ समाचार है, बापू ! और वह अन्तिम धक्का देने के लिए, मुझे नन्द्यावर्त और वैशाली छोड़ जाना होगा !' ___तारो या मारो। इस समय सत्ता केवल तुम्हारी है। हम कोई नहीं रहे। जो चाहो कर सकते हो।'
'सत्ता मैं किसी की नहीं स्वीकारता। अपनी भी औरों पर नहीं। वह कण-कण और जन-जन की अपनी स्वतंत्र है। वैशाली अब तक केवल नाम का गणतन्त्र है। दरअसल तो वह कुलतंत्र है। अष्ट-कुलकों का राजतंत्र है। मैं उसे एक विशुद्ध और पूर्ण गणतंत्र के रूप में देखना चाहता हूँ। उस दिन संथागार में एक जनगण ने सीधी और साफ़ माँग की थी, कि वर्द्धमान वैशाली के लिए खतरनाक़ है, और उसे वैशाली में नहीं रहने दिया जा सकता। उसकी माँग पूरी करके, मैं वैशाली में शुद्ध गणतन्त्र का शिलारोपण कर जाना चाहता हूँ !'
___ ‘पर तुमने उत्तर में यह भी तो चुनौती दी थी कि वैशाली के बाहर खड़ा हो कर, वर्द्धमान उसके लिए और भी खतरनाक हो सकता है ?' ___'बेशक हो सकता है, ताकि विश्व की तमाम शक्ति-लोलप राजसत्ताओं के लिए वैशाली के द्वार निःशस्त्र और मुक्त हो जायें। ताकि वर्तमान की सारी पुंजीभूत शस्त्र-सत्ता एक साथ उस पर आक्रमण करने आये, और माँ वैशाली की गोद में आकर वह अनायास निःशस्त्र और शरणागत हो जाये · · · !'
'कहने में यह बहुत सुन्दर लगता है, बेटा, पर करना का क्या इतना आसान हो सकता है?'
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