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________________ २९६ 'उसके लिए पहले अपने ही मूल में जाना होगा। अपनी ही आत्म-शुद्धि और संशोधन करना होगा। अपने मूल में आत्मस्थ होना, निसर्गतः समग्र महासत्ता के मूल से जुड़ जाना है, उसमें स्वरूपस्थ और तदाकार होना है। तब अपने ही वैयक्तिक जीवन और सत्ता में आपोआप एक आमूल अतिक्रान्ति और रूपान्तर घटित होता है। फलतः व्यक्ति निरी व्यष्टि न रह कर, समष्टि का केन्द्रीय सुमेरपुरुष हो जाता है। अपने आप में सुसम्वादी और संयुक्त हो जाने पर, समग्र विश्वसत्ता में वह स्वभावतः संयुक्ति और सुसंवादिता की एक परमाणविक विद्युत्शक्ति का संचार कर देता है। इसी से सर्व का रूपान्तर करने के लिए, पहले अपना सम्पूर्ण रूपान्तर कर लेना अनिवार्य होगा। सब को जो सही रूप में बदलने चला है, उसे पहले स्वयम् सही अर्थ में बदल जाना होगा।' तो उसके लिए तो और भी आवश्यक होगा, कि लोक के बीचो-बीच खड़े रह कर, अपने आत्म-रूपान्तर की प्रक्रिया सम्पन्न करो। तभी तो उसका प्रभाव सर्वत्र पड़ सकेगा। .. 'मैंने कहा न सोमेश्वर, यह काम सतह पर रह कर नहीं, तह में खो कर ही सम्भव है। केन्द्रस्थ होने के लिए, बाहर की सारी जड़ीभूत हो गई परिधियों को तोड़ कर, उनसे निष्क्रान्त हो जाना पड़ेगा। यहाँ तक कि भीतर-बाहर शून्य हो जाना होगा। क्योंकि शून्य में ही केन्द्र का अवस्थान है : और वहीं से आपातिक नव्य-नूतन सृष्टि सम्भव है।' __ तो उसके लिए क्या गृह-त्याग अनिवार्य है ? यहाँ रह कर भी तो अब तक तुम अपनी एकान्तिक अन्तर्यात्रा का जीवन बिताते रहे हो।' 'इस बहार दीवारी में रह कर अब आगे की यात्रा सम्भव नहीं, सोमेश्वर । विकास के इस मोड़ पर पहुँच कर, मैंने स्वयम् ही तो इस चहार दीवारी को तोड़ दिया है। जहाँ खड़ा हूँ उसी धरती को तो मैंने ध्वस्त कर दिया है। बाहर के सारे आधार मैंने छिन्न-भिन्न कर दिये ; अब यहाँ टिकाव सम्भव नहीं; अपने और सृष्टि के भीतर चले जाने के सिवाय और कोई विकल्प अब नहीं बचा।' 'वर्तमान व्यवस्था का भंजन तुमने किया है, वर्द्धमान, तो उसके सूत्रधार हो कर तुम्हें, अभी और यहाँ उसे नयी अवस्था और व्यवस्था प्रदान करनी होगी कि नहीं?' 'जिस व्यवस्था का मैं आमूल उच्छेदन चाहता हूँ, उसका अंग हो कर मैं कैसे रह सकता हूँ ! यह सारी व्यवस्था स्वार्थियों की सुविधा और उनके समझौतों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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