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________________ २९७ पर टिकी हुई है। इसका अंग हो कर रहूँगा, तो इसके स्थापित स्वार्थों, सुविधाओं और समझौतों को जाने-अनजाने अंगीकार करना अनिवार्य हो रहेगा। यहाँ का कुछ भी सत्य, न्यायोचित और समवादी नहीं। इस व्यवस्था से प्राप्त जीवनसाधनों का उपयोग जब तक करता हूँ, इनका ऋणी और अधीन जब तक हूँ, तब तक चोर हो कर ही रह सकता हूँ। चोरी और सीनाजोरी एक साथ कैसे चल सकती है ! वैशाली और नन्द्यावर्त की बुनियाद में मैंने उस दिन सुरंग लगा दी, सोमेश्वर, तो इस सारी व्यवस्था की धरती में सुरंग लग गई। घटस्फोट की प्रतीक्षा करो। सीधे भूमि के गर्भ में पहुँच कर मुझे उसके विकृत डिम्ब का विस्फोट करना होगा : तभी सत्य और सुन्दर का गर्भाधान सम्भव होगा : तभी भूमा का सर्वाभ्युदयी साम्राज्य भूमि पर प्रतिफलित हो सकेगा।' 'निवत्ति में जाकर, प्रवत्ति कैसे सम्भव है, मान?' - 'पूर्ण निवृत्ति और पूर्ण प्रवृत्ति दोनों एक ही बात है। प्रवृत्ति में निवृत्ति और निवृत्ति में प्रवृत्ति, यही परिपूर्ण जीवन का महामंत्र है। जो भीतर से नितान्त निवृत्त है, वही बाहर की अनन्त प्रवृत्ति की परिपूर्ण और समीचीन संचालना कर सकता है। क्योंकि उसके भीतर महाशक्ति के संतुलन का काँटा सतत प्रक्रियाशील रहता है । . .' ___ 'नचिकेतस् और पार्श्व निवृत्ति की राह चल कर ब्रह्म-परिनिर्वाण पा गये; पर उनके उस ब्रह्मलाभ से जगत को क्या प्राप्त हुआ, आयुष्यमान ?' __ 'हर तीर्थंकर, योगीश्वर या युग-विधाता महापुरुष, एक विशेष द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की तत्कालीन माँग पूरी करता है। नचिकेतस् और पार्श्व के जगत में, मनुष्य की पुकार वैयक्तिक मुक्ति की खोज से आगे न जा सकी थी। उसे प्राप्त कर उन्होंने, अपने पीछे कैवल्य-ज्योति के चरण-चिह्नों से अंकित एक प्रशस्त आलोकपथ छोड़ा है। पर आज के युगन्धर के सामने समष्टि की इहलौकिक मांगलिक मुक्ति की चुनौती उठ खड़ी हुई है । मैं यहाँ इसी लिए हूँ कि वैयक्तिक मुक्ति के कैवल्य-सूर्य को केवल निर्वाण के तट में विलीन हो जाने को न छोड़ दूं; उसे भू और छु के क्षितिज में उतार कर, लोक और काल के उदयाचल पर एक अपूर्व सर्वरूपान्तरकारी क्रिया-शक्ति के रूप में उद्योतमान करूँ। मैं निर्वाण को पादुका की तरह धारण कर, सिद्ध परमेष्ठी को लोक के सम्वादी पुनरावतरण के लिए, लोकालय की राहों और चौराहों पर लौटा लाना चाहता हूँ। · · नचिकेतस् और पाश्र्वनाथ से पूर्व, ऋषभदेव, राजर्षि भरत, जनक विदेह और याज्ञवल्क्य, निवृत्ति और प्रवृत्ति के समन्वय की पथ-रेखा हमारे बीच छोड़ गये हैं। वर्तमान का आगामी तीर्थंकर उसी पथ-रेखा को आगे ले जाने वाला पुरोधा और अपूर्व प्रतिसूर्य होगा। . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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