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________________ २९५ 'वर्तमान संसार को यदि मैंने तोड़ा है, तो एक नया और मौलिक प्रतिसंसार मुझे रचना होगा। वर्तमान के ह्रासोन्मुख काम-साम्राज्य को यदि मैंने छिन्नभिन्न किया है, तो मौलिक सत्ता के स्वरूप पर आधारित एक अभीष्ट और ऊर्योन्मुख प्रति-साम्राज्य मुझे अपने भीतर से अवतीर्ण करना होगा।' . 'तो क्या उसके लिए अपने ही किये इस सत्यानाश से पलायन करके अपने एकान्त में खो रहोगे?' ___'पलायन नहीं, यह पुनरुत्थान की दिशा में महाप्रस्थान का प्रथम चरण है। लोक में जो भी आमूल अतिक्रान्ति करने आये, उन्हें एक बार तो लोक से निष्क्रान्त हो ही जाना पड़ा है। जो वर्तमान देश-काल को आमूल-चूल उलटकर बदल देने आये, उन्हें सदा एक बार तो लोक से बाहर खड़े हो ही जाना पड़ा ! - - - ___'सोचता हूँ, इतिहास के विपथगामी दौर को जो उलट देने आया है, उसे इतिहास के चौराहे पर खुल कर खेलना होगा। धारा को जो मोड़ देने आया है, उसे उसके सम्मुख खड़े होकर, अपनी खुली छाती पर उसे प्रतिरोध देना होगा। . . ___'ऐसा युद्ध सतह के मैदानों और चौराहों पर नहीं लड़ा जाता, सोमेश्वर ! ऊपरी कड़ियों की जोड़-तोड़ से, मौलिक एकता पर आधारित रचना सम्भव नहीं। उससे केवल ऊपरी सदाचारों के पाखंड पनपते हैं। सुविधा, सुधार और समझौतों की स्वार्थी राजनीति का जन्म होता है। वह स्थिति को सुलझाने के बजाय, और अधिक उलझाती है। उसमें मौलिक धर्म-सत्ता का स्थान मानवों की कृत्रिम और स्वार्थी कर्म-सत्ता ले लेती है। वर्तमान का विपर्यय उसी का तो प्रतिफल है। . . 'सुनो सोम, धारा यदि विकृत हो गई है, तो मानना होगा कि अपने प्रकृत उत्स से वह उच्छिन्न हो गई है। उसे मैंने तोड़ा है, तो इसी लिए कि उसके अतल उत्स में उतर जाऊँ, और उसके प्रकृत प्रवाह को लोक में अनिर्वार प्रवाहित कर दूं ।' 'तुम्हारी बात को पूरी तरह समझ नहीं रहा, वर्द्धमान, कुछ और स्पष्ट करो।' 'जगत को जीते बिना, उसमें जी चाहा रूपान्तर नहीं लाया जा सकता। और जगत को जीतने के लिए उसकी जड़ में जाना होगा। वृक्ष के फूल, फल, शाखा जब विपन्न और विकृत हो जाते हैं, तो माली उन पर सीधे औषधि प्रयोग नहीं करता, वह वृक्ष की जड़ का उपचार और संशोधन करता है । मूल को स्वस्थ किये बिना चूल के डाल, फूल, फल स्वस्थ और सम्पन्न नहीं हो सकते।' 'तो मूल का उपचार तुम कैसे करना चाहते हो ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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