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________________ २९४ ललकार में ढहा दिया है। विश्व की तमाम तलवारें न कर सकीं, वह उसने अपनी एक ही ललकार में कर दिया है। उसने ज्ञाता और ज्ञेय में अन्तर्निहित एक नयी ही क्रिया-शक्ति का स्रोत खोल दिया है। शुद्ध और पूर्ण ज्ञान को, शुद्ध और पूर्ण क्रिया में परिणत कर, वह धर्म और कर्म की, लोक और लोकोत्तर की एक अपूर्व संयुति पृथ्वी पर सिद्ध करने आया है ।' 'अब तुम्हीं कहो वर्द्धमान्, यहाँ के पूर्व-पश्चिम की क्या सुनाऊँ ? फिर भी सुन लो, पश्चिमी गणतंत्र तुम्हारे भीतर विश्व का प्रथम गण - सम्राट देख रहे हैं । गान्धार में तो प्रजाओं ने तुम्हें सर पर उठा लिया है। परशुपुरी का शासानुशास तुम्हारी मैत्री को उत्सुक हो उठा है : क्योंकि वह सोचने लगा है कि आर्यावर्त अब तुम्हारी मुट्ठी में है; और ऐसी संयुक्त शक्ति की मंत्री के बिना वह अपना अस्तित्व सम्भव नहीं देखता । आर्यावर्त में तुम्हारा स्वागत सबसे अधिक ब्रह्म-क्षत्रियों और संकरों ने किया है । शुद्र, कम्मकर और चाण्डाल अपना पीढ़ियों-पुरातन भय और दैन्य त्याग कर, रातदिन तुम्हारी जयकारों से आकाश गुंजित कर रहे हैं। ऐसा लगता है, कि जानी हुई ससागरा पृथ्वी के दिगन्त तुम्हारे इस शंखनाद से हिल उठे हैं। अनुभव कर रहा हूँ, कि तमाम सृष्टि में विप्लव की एक हिलोर दौड़ी है, और कुलाचल दोलायमान हुए हैं ! 'और कुछ कहीं हुआ हो या नहीं सोम, पर तुम्हारी कविता में ज़रूर एक अतिक्रान्ति हुई है । और तुम्हारे जैसे पारदर्शी कवि की कविता असत्य नहीं हो सकती। उसमें यदि यह सब घटित हुआ है, तो कल पृथ्वी पर वह निश्चय रूपायमान होगा । मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ । 'लेकिन वर्द्धमान, यह क्या सुन रहा हूँ कि तुम जा रहे हो ? आख़िर क्यों और कहाँ ?' 'तुम्हीं तो कह रहे हो कवि, कि चारों ओर से मेरे लिये पुकार आ रही है । पुकार यदि मैंने सब में पैदा की है, तो उत्तर देना होगा कि नहीं ? तब इस महल की चहार दीवारी में बन्द कैसे रह सकता हूँ। मेरी आवाज़ से तुम्हारे भीतर ऐसा विराट् स्वप्न जागा है, तो उसे सिद्ध करना होगा कि नहीं ? कण-कण यदि मेरे शब्द से ज्वालागिरि हो उठा है, तो क्या उसकी लपटों से बच कर, यहाँ बैठा रह सकता हूँ ? 'तो लोक के बीच आओ, लोक का त्याग करके, उसे पीठ दे कर, अरण्यों के ara में निर्वासित हो कर, वह कैसे सम्भव है ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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