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________________ २९३ 'चन्द्रभद्रा शीलचन्दन, तुम्हें ठीक महावीर की बहन की तरह तलवारों की छाया में चलना होगा। तैयार रहो। मैं तुम्हारे साथ हूँ ।' 'और मगधेश्वर तो, वर्द्धमान, जब से यह उदन्त सुना है, तुम्हारे गुण गाते नहीं अघाते । कहते हैं- 'अध:पतित क्षत्रियों के बीच यह एक ही तो नरशार्दूल जन्मा है। सारे ही दैवज्ञ एक सिरे से भविष्यवाणी कर रहे हैं कि वह जन्मजात चक्रवर्ती हैं। गणतंत्री हो कर वह नहीं रह सकता, वह भारतों का राजराजेश्वर हो कर रहेगा । मेरी प्रेम और सौन्दर्य- पूजा का भर्म केवल वही तो समझता है । वर्द्धमान मुझे साथ ले कर तमाम जम्बूद्वीप में एकराट् साम्राज्य स्थापित करना चाहता है ।' • सो मित्र, जिस मगध सम्राट की आक्रामकता से वैशाली आतंकित है, उसे तो चुटकी बजा कर ही तुमने चाँप लिया। उधर कुटिल वर्षकार भी हर्ष से गद्गद् हो उठा है। यह एक जगत- विख्यात तथ्य है कि वज्जिसंघ की एकता अटूट है और जब तक लिच्छवियों में यह एका है, वैशाली अजेय है । तुम्हारे भाषण से वज्जियों में अन्तविग्रह जाग उठा है, और वर्षकार अब वैशाली को चुटकी बजाते में जीत लेने की सोच रहा है। उसने चौगुने वेग से आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी है । आर्यावर्त के सारे दबे हुए अन्तर्विग्रहों की आग को तुमने खुले चौराहों पर प्राज्जवल्यमान कर दिया है। अब तक मंत्र - दर्शन की बात केवल सुनता रहा हूँ, तुमने अपने शब्द की शक्ति उसे सिद्ध कर दिया । तुम्हें पहचानना कठिन होता जा रहा है, आयुष्यमान् ! • असम्भव हो तुम इसी से अनन्तसम्भव हो !' से 'असम्भव की सीमा रेखा, असम्भव पुरुष ही तोड़ सकता है ! व्यक्ति में यदि सत्ता साक्षात् प्रतिभासित और परिभाषित हुई है, तो जानो सोमेश्वर, मैं और तुम से परे कोई तीसरी ताक़त इस समय काम कर रही है । और तुम मुझे उसके देवदूत लग रहे हो । कवि होकर, अव्यक्तों, असम्भव सम्भावनाओं, पारान्तरों और भविष्यों के द्रष्टा हो तुम और कहो, पश्चिमी सीमान्तों और उसके ! बार के देशों की भी कुछ ख़बर है ? ' ! 'वहीं तक की क्या पूछते हो भरत क्षेत्र से मनुष्य द्वारा अगम्य विदेह क्षेत्रों तक का उदन्त सुनो मुझसे । कहते हैं कि, विदेह क्षेत्रों के नित्य विद्यमान तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनियाँ प्रखर और प्रभंजन की तरह वेगीली हो उठी हैं । उनमें सुनाई पड़ा है कि : 'अरे भव्यो, अपूर्व और अप्रतिम है भरत क्षेत्र का यह कुमार तीर्थंकर महावीर ! अनन्त कैवल्य ज्योति के नये पटल यह खट-खटा रहा है | आदिकाल से चले आ रहे जीवन, जगत और समाज का ढाँचा इसने तोड़ दिया है । सहस्राब्दों के घिसे-पिटे वस्तुओं और व्यवस्थाओं के जड़ीभूत ढाँचों को उसने अपनी एक ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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