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'यही चाहती हो न ? तो अनिवार्य है कि पहले स्वयंनाथ बनं, ताकि सर्वनाथ हो सकें । उसके बिना तुम्हारा सम्पूर्ण नाथ नहीं हो सकता। वह स्वभाव नहीं।'
'मेरी ओर देखो . . ! बोलो, क्या चाहते हो ?' 'देख रहा हूँ, तुम्हारी ये आँसूभरी आँखें ! प्राणि-मात्र की पीड़ा, करुणा, विरह-वेदना इनमें झलक रही है। तुम्हारे इन सुन्दर भोले मृग-नयनों में, हत्यारों की स्वार्थी बलि-वेदियों पर होमे जाने को खड़े, कोटि-कोटि कातर क्रन्दन करते, निर्दोष मृग-शावक मुझे त्राण के लिए पुकार रहे हैं। तुम्हारी इन कजरारी आँखों की अभेद मोहरात्रि में भटकती जाने कितनी ही आत्माएँ, मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं। देख रहा हूँ तुम्हारी चितवन को अन्तहीन दूरियों में : वहाँ अनन्त विरह की रात्रियाँ आर्त विलाप कर रहीं हैं। · · क्या नहीं चाहोगी, कि तुम्हारी भीनी पलकों के इन करुण-विह्वल कूलों की सीमाएँ तोड़ जाऊँ ? इनकी विरह-रात्रियों को भेदता हुआ, त्रिलोक और त्रिकाल के अनन्त चराचर जीवन का संगी और संत्राता हो जाऊँ। सर्व का रमण हो कर, सर्व की चिर अतृप्त रमण-लालसा को, चरम-परम तृप्ति प्रदान कर सकू। मेरी अविकल रमणी हो कर रहना चाहती हो, तो मुझे सकल का रमण होने दे कर ही, अपने शाश्वत रमण के रूप में उपलब्ध कर सकोगी। · · वोलो, क्या कहती हो?'
'मेरे परम रमणा, जैसे चाहो अपनी रमणो में, अवाध रमण करो . . !'
____ और वह यशोदा सहसा ही एक मुक्त, अतिक्रान्त चितवन से मेरी खुली छाती की ओर देख उठी :
'उफ्. - यह क्या ? मेरे प्रभु, रक्त . . . ! तुम्हारी छाती से यह कैसा रक्त उफन रहा है . . . ?'
और वह आँखें मूंद कर, मूच्छित-सी हो, मेरे वक्ष पर लुढ़क आने को हुई। मैंने उसकी दोनों मुकुमार भुजाओं को अपने दोनों हाथों से पकड़, उसे अपनी जगह पर ही थाम दिया। ___'मेरी छाती के इस रक्त से आँखें मंदोगी? पलायन करोगी? नहीं, इसकी
ओर से मूच्छित नहीं हआ जा सकता, यश । इसे खली आँखों देखना होगा, सहना होगा, इसका सामना करना होगा। हत्यारों की यज्ञ-वेदियों पर, आहुति बनने को खड़े करोड़ों मूक पशुओं और मानवों का यह निर्दोष रक्त है। इसे सहो, इसे अपने आँचल में झेलो। यह तुम्हारे सर्वमातृक वक्ष में शरण खोज रहा है ।
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