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वह अपना आँचल खसका कर, उसे पोंछने को उद्यत हो आई।
'नहीं, इसे पोंछो नहीं, इसे दबाओ नहीं। इसे अपनी बहत्तर हज़ार नाड़ियों में आत्मसात करो। इसे अपने आँचल के दूध में अभय और मुक्त करो। इससे अपने अणु-अणु को आप्लावित कर, जीवन मात्र को अघात्य और अवध्य कर देना
होगा!'
· · ·और सहसा ही पाया कि उसका माथा मेरी छाती से उफनते उस रक्त पर ढलक आया है।
'लो, तुम्हारी माँग भर गई, यशोदा ! तुम्हारी लिलार पर सौभाग्य का तिलक उजल आया। मेरी सीमन्तिनी, अपने सीमन्त के कूल में चिरकाल की इस अनाथ रक्तधारा को सनाथ करोगी तुम !'
'मेरे भगवान, जन्म-जन्मान्तरों की तुम्हारी नियोगिनी दासी, कृतकृत्य हो गई !'
'नियोगिनी होकर तो सदा वियोगिनी ही रही तुम। आज तुम योगिनी हुई। दासी मिट कर सदा को स्वामिनी हो गई, अपनी, मेरी, और सबकी !' ___डाल पर पूरे पक आये आम-सी, वह रस-सम्भार से आपूर्ण हो कर, महावीर के चरणों में ढलक पड़ी। एक अभेद नीरवता में, जाने कितनी देर हम निर्वापित हो रहे । · · ·सहसा ही मैंने अपने पैरों को आँसुओं के एक अगाध, असीम समुद्र पर चलते देखा।
'फिर कब दर्शन दोगे, देवता?'
‘कलिग के समुद्र-तोरण पर, ठीक मुहूर्त में, एक दिन तुम्हारा पाणिग्रहण करने आऊँगा। बहते पानियों की वेदी पर, तुम्हारा वरण करेगा महावीर · · · !'
'कलिंग की राजबाला उन समुद्रों पर आँखें बिछाये रहेगी।'
· · प्रियंकर के उड्डीयमान अश्वारोही का अनुसरण करती दो आयत्त आँखें, पानी हो कर तत्वलीन हो रहीं।
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