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२८५ नाथ . . .!'
वे बड़े-बड़े पलक-पक्ष्म उठ कर सामने देख उटे, और उनसे आँसू गालों पर हरक आये।
'अपना नाथ यदि सचम्च पाती हो मुझे, तो ना,गा ही तुम्हें । मेरी नथड़ी पहनने को, अपनी नाक तुम्हें मुझ से नथवानी होगी कि नहीं · · · ?' ___ 'नाथो मुझे, मेरे नाथ, और पहनाओ अपनी नथड़ी । तुम्हारे सिवाय मुझे मोहाग और कौन दे सकता है ?' ____ 'तब नाक ही नहीं, अपनी सारी इन्द्रियाँ मुझे सौंप देनी होंगी। जो नाक को नाथेगा, वह तुम्हारी हर साँस को नाथेगा। तुम्हारी प्राण-ग्रंथि का अन्तिम रूप से भेदन करेगा। तब कोई भी तुम्हारी इन्द्रिय, मुक्त और स्वच्छन्द नहीं रह सकती।'
'सर्वस्व ले लो, और सदा-सदा को मेरे स्वामी हो जाओ
'तो अब वही कर सकोगी, जो मैं कहूँगा। तुम्हारा कहना और करना सदा को समाप्त हो गया।'
'मैं ही समाप्त हो गई इन चरणों में, तो कहना और करना मेरा अब कहाँ बचा?' ____ तो तुम आज से मेरी सहधर्मचारिणी हुई । सो स्वधर्मचारिणी हुई। तो अपने स्वधर्म में रहो, और मुझे अपने स्वधर्म की राह पर जाने दो । तुम्हारा स्वामी, तुमसे अनुमति चाहता है।'
'अद्वैत का वचन दे कर, फिर द्वैत की भाषा बोल रहे हो ?'
"स्थिति में अद्वैत, सत्ता में अद्वैत, स्वभाव में अद्वैत , किन्तु गति में, प्रगति में, परिणमन में, जीवन की लीला में, द्वैत अनिवार्य है, यशोदा। एकान्त अद्वैत, एकान्त द्वैत, दोनों ही मिथ्या हैं। एक बारगी ही अद्वैत भी, द्वैत भी, यही सत्ता का स्वभाव है । यही जीवन है, यही जगत है, यही मुक्ति है।'
'आदेश दो, यश प्रस्तुत है !' _ 'त्रिलोक और त्रिकाल की सारी आत्माएँ मुझे पुकार रही हैं। वे मेरे साथ एकात्मता पाने को विकल हैं। वे चिरकाल की अनाथिनी हैं, और मुझ में अपना नाथ खोज रही हैं। तो बोलो, उन्हें कैसे मुकर सकता हूँ ?'
‘पर प्रथम और अन्तिम रूप से सम्पूर्ण मेरे नाथ रहोगे तुम !'
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