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भावक पर निर्भर न करना पड़े । यशोदा को मैं ऐसी ही कविता देख रहा हूँ। और तब वह निश्चय ही मेरी कविता है !'
वह झुक कर जैसे अपने ही वक्ष में लीन होती-सी दीखी। उस चुप्पी की सरसी में मैं निमज्जित-सा हो रहा ।
'- - 'तुम्हारी जनम-जनम की दासी हूँ। तुम्हारे सिवाय त्रिलोक और त्रिकाल में मेरा पाणिग्रहण कोई और नहीं कर सकता !
'पाणिग्रहण करने के लिए ही तो मेरा जन्म हआ है, यशोदा। सब का हाथ पकड़ने आया है, तो क्या तुम्हारा नहीं पकडूंगा ।'
'वह मब मैं नहीं समझती। पहले मेरा पाणिग्रहण करो, फिर जहाँ चाहो जाओ. चाहे जिसका हाथ पकड़ो, मुझे आपत्ति नहीं । ' - 'तुम्हारी हथेलियों के ये कमल मेरे हैं, तुम्हारे ये चरण-युगल चिर जन्म से इस दासी के हैं। अपनी खोई निधि को पहचान लिया है और पा गई हूँ, तो उसे मुझ से छीनने वाले तुम कौन होते हो !' ___वर्द्धमान दासियों को नापसन्द करता है। उसे दासी नहीं, स्वामिनी चाहिये। और स्वामिनी को अपने स्वामी पर इतना अविश्वास कैसे हो सकता है, कि उसे उस पर अलग से अधिकार का दावा करना पड़े !'
'स्वामी' • तुम आ गये ? · · · मेरे स्वामी ! . . 'कहो, मुझे छोड़ कर नहीं जाओगे !'
'स्वामिनी पहले अपनी हो रहो, तो म्वामी तो तुम्हें तुम्हारा अपनी वाहों में अनायास आबद्ध मिलेगा। ऐसा अन्तिम और अचूक, कि जिसके छोड़ कर जाने का अंदेशा होता ही नहीं । इस बाहर खड़े स्वामी वर्द्धमान का भरोसा करोगी, तो संकट में पड़ सकती हो । इसका क्या भरोसा, यह कब छोड़ जाये . . . !'
'सच ही सुना है - बहुत निष्ठुर हो तुम !' ___ 'सन्देह है तुम्हें अपने संयोगी पर, तो जानो कि वह तो तुम्हारा संयोगी है ही नहीं। तुम्हें सन्देह है कि वह अन्तिम रूप से तुम्हारा नहीं है, इसी मे तो भय बना है तुम्हें कि वह छोड़ कर जा सकता है । ऐसे क्षणिक और सन्दिग्ध प्रीतम को माया में क्यों पड़ी हो ?'
'तुम्हारी कसौटियों पर मुझे नहीं उतरना । - ‘निर्दय कहीं के . . .
‘मेरी दया पर जीना चाहती हो? तो सुनो, जो दयनीय और पराधीन है, · · वह महावीर की प्रिया नहीं हो सकती !
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