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________________ २८३ सघन श्वेत फूलों से छा ये सप्तच्छद-वन के तलदेश में दिखाई पड़ा : एक तने के सहारे, ऊपर झुक आई एक डाल को भंगिम बाँह से थामे, कोई प्रतीक्षा वहां आँखों के कुवलय बिछाये है। कालोदधि समुद्र के अंगूरी मोतियों की आभा उस प्रलम्ब देह-यष्टि में लचीली हो आई है। मुझे सामने पा कर, सहसा ही जानुओं पर ढलक कर, उसने अपनी दोनों बाहुएँ मेरे चरण-तटों में पसार कर माथा धरती पर ढाल दिया। जैसे वह सारा सप्तच्छद वन अवश धरती पर लुढ़क आया। · · तो उस पर बैठ जाने को मानो मुझे विवश हो जाना पड़ा। वह उठ कर भी झुकी ही रह गई। आँखें वे ढलकी ही रह गईं : 'मुनती हूँ, मुझे छोड़ कर चले जा रहे हो !' 'सब से जुड़ने जा रहा हूँ, तो तुम्हें क्यों छोड़ जाऊँगा?' 'सब से जुड़ने को आकाश भले ही हो आओ। मेरे पैरों तले की धरती तो छिन ही जायेगी। असीम आकाश तले मुझ ना-कुछ की क्या हस्ती ; मुझे कौन याद रक्खेगा?' 'ना-कुछ हो जाओ, यश, तो सारा आकाश तुम्हारा होगा!' 'आकाश को बाँध सकं, इतनी बड़ी बाँहें मेरे पास कहाँ ? उस सूनेपन में हाथ-पैर मारती, उसका बगूला भले ही हो रहूँ।' _ 'जिसे बाँधना चाहती हो, उसे क्या इतना असमर्थ मानती हो, कि तुम्हारी बाँहों को वह असीम न कर सके ?' ‘छोड़ो वह । नहीं चाहिये मुझे तुम्हारा आकाश ! मैं धरती की हूँ, और वह तुम मुझ से छीन लो, यह नहीं होने दूंगी।' ___'धरती की नहीं, स्वयम् धरती हो तुम, देवी । तुम हो कि आकाश की सत्ता सम्भव है। तुम हो कि आकाश देखा जा सकता है, पाया और गहा जा सकता है। चाहो तो वह तुम्हारी अँगुली में बँध आने तक को विवश हो सकता है !' ___ 'तुम्हारी यह कविता और तत्वज्ञान मेरे वश का नहीं । मेरी उँगलियां अन्तरिक्ष की नहीं बनी : वे ठोस रक्त-मांस की हैं। और उन्हें ठोस रक्त-मांस की पकड़ चाहिये !' ___ 'स्वयम् कविता हो, कल्याणी ! लेकिन कविता, बस होती है, वह अपने को समझती नहीं, पहचानती नहीं। पर मैं उस कविता की खोज में हूँ, जो अपना बोध आप ही पाये : अपने सौन्दर्य में आप ही रमण करे। उसे अपने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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