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• • एक हिल्लोल-सा उठा भीतर : कि एक छलाँग में उस दुर्दाम ज्वालामुखी में कूद पडूं। वल्गा की तरह अपनी मुट्टियों में उन अग्नि-शिखाओं को पकड़ कर, उस प्रलय को बाँध लूं और उस पर सवार हो जाऊँ। अपनी नग्न छाती में उसे शोष कर, शान्त कर दूं। · · · मैंने घोड़े को एड़ दी : वह टस से मस न हुआ। मैं उन्मत्त हो कर उसे एड़ पर एड़ देता चला गया। पर घोड़ा नहीं, चट्टान है, अटल और अनम्य । · · · मैंने उस पर से कूद कर, इन्द्र के वज्र की तरह उस सत्यानाश पर टूट पड़ना चाहा । - ‘पर नहीं : उस चट्टान में मैं अभिन्न भाव से प्रस्तरीभूत हूँ, जड़ीभूत हूँ। · · ·घोड़े के उस स्तंभित प्राण से अलग, मेरा कोई प्राण अस्तित्व में नहीं रह गया। यह स्थिति मेरी समझ से परे है, केवल उसके निस्तब्ध बोध में ही मैं रह सकता हूँ।
· · ·और अपने भीतर सुनाई पड़ा : "नहीं, अभी समय नहीं आया है !" मात्र एक निष्कम्प दर्शन की मुद्रा में मैं देखता ही रह गया : प्रदोष बेला के धिरते धुंधलके में, क्षीणतर होती अग्नि-शिखाओं में, एकीभूत आर्त क्रन्दन का छोर डूबता सुनाई पड़ रहा है। · · ·और राशिकृत प्राणी मेरी शिराओं में सरसराते चले आ रहे हैं। ..
लौट कर जब नन्द्यावर्त पहुँचा तब रात का अन्तिम प्रहर ढल रहा था। मेरे कक्ष के द्वार पर, एक प्रतिहारी मेरी प्रतीक्षा में अखण्ड रात जागती खड़ी थी : .
- 'देव, एक पत्र आपके लिए उस चौकी पर रक्खा है। कल साँझ की द्वाभा वेला में कलिंग का एक अश्वारोही वह ले कर आया था। कलिंग-राजनन्दिनी यशोदा का वह अनुचर अतिथिशाला में प्रतीक्षमान है।' ___ मुक्ताफलों की एक बन्द सीपीनुमा मंजूषा चौकी पर पड़ी थी। खोल कर पढ़ा:
'. . 'दर्शन की प्रत्याशी हूँ। द्युति-पलाश चैत्य-कानन में कल साँझ प्रतीक्षा करूँगी। -यशोदा'
हूँ . . ! अविकल्प उसी के नीचे आँक दिया मैंने "तथास्तु !" और मुक्ताफलमंजूषा प्रतिहारी को लौटा दी।
खिली सन्ध्या के चम्पई आलोक में सारा उपवन बहुत मृदु हो आया है। बन्धक फूलों की महावर से रची भूमि पर पड़ती, अपनी पगचापों को लालित होती अनुभव कर रहा हूँ। शेफाली और मालती की भीनी महक में यह कैसी एक छुवन और पुलक तैर रही है !
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