________________
२८१
दिन कन्दन कर रहा है । ब्राह्म मुहूर्त अचानक मेरी पलकों पर बूंदें -सी टपकीं । हड़बड़ा कर जागा, तो देखा आपका लाड़िला प्रियंकर मेरे चेहरे पर गर्दन झुकाये • संकेत पाकर मैं समझ चुपचाप खड़ा है । उसकी आँखों से आँसू टपक रहे हैं । गया। मैंने उसे तैयार कर दिया। वह राजद्वार पर स्वामी की प्रतीक्षा में आ खड़ा हुआ है।'
'ठीक है : मुझे नहीं, प्रियंकर को ठीक पता है, मुझे कहाँ जाना है । और जाने कब शेष रात्रि के जामली अँधेरे में पाया कि प्रियंकर का आरोही, एक असूझ तमसारण्य को बिजली के तीर की तरह भेदता चला जा रहा है। अविराम और अविश्रान्त दौड़ते घोड़े की गति के सिवाय और कुछ भी मेरे लिए दृश्य नहीं रह गया है। देश और काल से परे, एक दुरन्त गतिमत्ता के भीतर अपने को एक वात्याचक्र की तरह जैसे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करते देखा ।
- बढ़ते हुए अपराह्न की मन्द पड़ती धूप में भूगोल का भान हुआ। देखा कि मगध की भूमि पर धावमान हूँ । उदंडपुर गुज़रा, नालक ग्राम से सरे बाज़ार दौड़ता घोड़ा निकल गया । बहुचैत्रक के सीमा- प्रदेश में पहुँचते साँझ नम आई । • अस्तंगत सूर्य की किरणों में बहुत दूर राजगृही के पंच शैलों के पवित्रकूट सहसा ही जैसे रक्त से अभिषिक्त दिखाई पड़े ।
और क्या देखता हूँ कि गृद्धकूट की उपत्यका में लपलपाती अग्निजिह्वाओं-सी कई ज्वालाएँ भड़क-भड़क कर आकाश चूम रही हैं । शत-शत कण्ठों को हवन-मंत्र ध्वनियों के अविराम घोष, प्रचण्ड से प्रचण्डतर होते जा रहे हैं । घृत, पुरोडाश, मदिरा और नाना हव्य धूपों तथा सामग्रियों की गन्ध से वातावरण व्याकुल है । रक्त-मांस, त्वचा, चवियों, अंतड़ियों, हड्डियों के जलने की तीव्र श्वास- रोधक दुर्गन्धि से आकाश, हवा, जल, वनस्पति, धरती के प्राण घुट रहे हैं । पंचतत्व जैसे पीड़ित हो कर स्वयं ही अपनी हत्या कर देने को विवश हो गये हैं !
और बहचैत्रक के प्रांगण में आ कर अचानक ही घोड़ा पत्थर की तरह स्तम्भित, अचल खड़ा रहा गया।
सामने दिखाई पड़ा : गृद्धकूट और विपुलाचल के ढालों पर जैसे ज्वालाएँ फैलती चली जा रही हैं । वे सदा के सुरम्य पर्वत नहीं रह गये हैं: सारी पृथ्वी उनमें सिमट कर मानो दुर्दान्त ज्वालामुखी हो उठी है । और उसमें से शत- सहस्र थलचर, जलचर, नभचर प्राणियों का एक अन्तहीन और समवेत आर्तनाद उठ रहा है । अन्तरिक्ष के सारे पटलों को भेद कर, जैसे लोक की त्रम - नाड़ी सन्त्रास से फटी जा रही है ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org