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पण्यों, अन्तरायणों और सिंह-तोरणों के सारे कपाट और ताले सदा को टूट जायें। मां के सतीत्व को झूठी सुरक्षा की जंजीरों से मुक्त कर दिया जाये। उसके आँचल के धन-धान्य, सुवर्ण-रत्न, तमाम जीवन साधन, परिग्रह, अधिकार और कानून के शिकंजों से मुक्त हो कर, उसके द्ध की तरह मुक्त उमड़ कर, जन-जन को सुलभ हो जायें। दुर्गों, कपाटों, तलवारों, तालों, जंजीरों, सैन्यों और कानूनों से हम चिर बन्दिनी सत्ता-माँ को सदा के लिए मुक्त कर दें। फिर आप देखेंगे कि वैशाली को जीत सके और उसे पद-दलित कर सके, ऐसी ताक़त पृथ्वी पर पैदा नहीं हुई है।
'वैशाली के तमाम हमलावरों के विरुद्ध मेरी यही एकमात्र युद्ध-योजना है। आपको यदि यह स्वीकार्य हो, तो इसका सेनापतित्व ज्ञातृपुत्र वर्द्धमान महावीर को सहर्ष शिरोधार्य होगा। . .
'आप सबने अभंग शांति में मुझे सुना, मैं कृतज्ञ हूँ आपका। आपका कोई प्रति-प्रश्न हो, तो समाधान को मैं प्रस्तुत हूँ। . .'
· · ·और चुप होते ही, अपार्थिव निस्तब्धता में मैंने अपने को एक जाज्वल्यमान शलाका की तरह निश्चल खड़े देखा। ..
महानायक सिंहभद्र ने गण-प्रमुख की ओर से धोषणा की :
'भन्तेगण सुनें, आपके गणपुत्र वर्द्धमान ने अपनी युद्ध-योजना आपके समक्ष प्रस्तुत की है। उसे स्वीकारने या नकारने को आप स्वतंत्र हैं। छन्द-शलाका में वर्द्धमान का विश्वास नहीं। वे किसी भी स्वतन्त्र आवाज़ का स्वागत करेंगे।'
सात हजार सात सौ सितहत्तर गण-श्रोता कुछ इतने निःशब्द दीखे, कि प्रश्न उनके भीतर जैसे खोया, खामोश और पराजित दीखा। तब हठात् जैसे सबकी उलझन को व्यक्त करती एक बुलन्द आवाज़ दूर श्रोता-मण्डल में से सुनाई पड़ी :
'आयुष्यमान वर्द्धमान, सुनें। आप हमें वह करने को कहते हैं, जो इतिहास में कभी हुआ नहीं, होगा नहीं। न भूतो न भविष्यति ।'
'बेशक, वही करने को कहता हूँ, सौम्य। मैं इतिहास को दोहराने नहीं आया, उसके चिरकालीन आत्मघाती दुश्चक्र को तोड़ कर, उसे मनुष्य और वस्तु मात्र के हित में उलट देने आया हूँ।'
'असम्भव को सम्भव बनाने की यह टेक जोखिम भरी है, आर्य वर्द्धमान ! जो आज तक न हुआ, वह कभी हो नहीं सकता। उसका प्रयोग वैशाली पर करना, अपने ही हाथों अपने घर में आग लगा देना है।'
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