________________
___२६९
_ 'यह सत्ता का स्वभाव नहीं कि जो अब तक न हुआ, वह आगे भी न होगा। ऐसा मानना सत्ता के सत्तत्व और अनन्तत्व से इनकार करना है । सत्ता के सत्य को यहाँ स्थापित करने के लिए, यह जोखिम उठा लेनी होगी। अपने ही घर में आग लगा कर, उस आग के साथ अन्तिम रूप से जूझ लेना चाहता हूँ। उसमें अपने और वैशाली के आत्मतेज को परखना चाहता हूँ। खरे हम उतरेंगे, तो इतिहास में अपूर्व और अप्रतिम विजय का वरण करेंगे। उस आँच में तपे बिना, वैशाली अजेय नहीं हो सकती । उस अग्नि स्नान से अमर हो कर न निकल सकें, तो अपना और वैशाली का भस्म हो जाना ही श्रेयस्कर मानता हूँ। नित्य के आत्मघात के बजाय, एक बार सत्य के हुताशन की आहुति हो जाना ही मुझे अपने और वैशाली के लिए अधिक योग्य लगता हैं।'
· · ·और सहसा ही ज्वालामुखी के विस्फोट-सी एक आवाज़ उठी :
'भन्तेगण सावधान, गणनाथ सुनें, मैं जातपुत्र वर्द्धमान को वैशाली के लिए ख़तरनाक़ मानता हूँ ! वे यदि वैशाली में रहेंगे, तो वैशाली का सर्वनाश निश्चित
भन्तेगण सुनें, वर्द्धमान की आत्मा वैशाली की सीमाओं से कभी की निष्क्रान्त हो चुकी। आप निश्चिन्त रहें, अब देर नहीं, कि उसका शरीर भी वैशाली के सीमान्तों से सदा को अभिनिष्क्रमण कर जायेगा। पर सावधान भन्तेगण, एक बात कहे जाता हूँ, कि वैशाली से निर्वासित हो कर, उसका यह गणपुत्र और राजपुत्र उसके लिए और भी अधिक खतरनाक हो सकता है। · · पर आप चाहें भी, तो अब उसे अपनी सीमाओं में बाँध कर नहीं रख सकते। जानें, कि इस क्षण के बाद वर्द्धमान किसी का नहीं, अपना तक नहीं ! वह अपने ही से निष्क्रान्त है ।
'.. 'और भन्तेगण सूनें, जाने से पहले मैं वैशाली की राज-लक्ष्मी को त्रैलोक्येश्वर जिनेन्द्र के चरणों में अर्पित किये जा रहा है। उन परम सत्ताधीश के हाथों में वैशाली का भाग्य सौंपे जा रहा हैं। उनकी इच्छा होगी तो एक दिन वैशाली का यह गणपुत्र ऐसे धर्म-साम्राज्य की नींव डालेगा, जो आज तक इतिहास में न भूतो न भविष्यति रहा है। माँ वैशाली अनन्तों में जयवन्त हो !'
और मेरे अनुसरण में सहस्रों कण्ठों से गूंजा : ___'माँ वैशाली अनन्तों में जयवन्त हो, लिच्छवि-कुलसूर्य महावीर अनन्तों में जयवन्त हों __.. और मैंने पीछे लौट कर भगवान वृषभनाथ के चरणों में साष्टांग प्रणिपात किया। अपने मुकुट, कुण्डल, केयूर, रत्नहार उतार कर, त्रैलोक्येश्वर प्रभु
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org