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'वैशाली के शत्रु मगध और बिम्बिसार नहीं, महामात्य वर्षकार नहीं, वैशालकों का अहंकार-ममकार है । हम धर्म से विच्युत हो गये हैं, इसी से हमारे चारों ओर शत्रु हैं । इक्षवाकु लिच्छवियों की यह मर्यादा लोक-विख्यात है कि वे काष्ठ के उपधान पर सर रख कर सोते हैं । उनके सिरहाने तलवार है, और वे सदा जागृत हैं। आज काष्ठ के उपधान की तो बात दूर, फूलों के तकियों पर और सुन्दरी की बाहु पर भी लिच्छवि को चैन नहीं। उसकी वासना, लिप्सा और आरति का अन्त नहीं । साँझ होते न होते, वैशाली गण का समस्त तारुण्य मदिरा की मूर्छा में डूबा, आम्रपाली के सप्तभूमि प्रासाद के आंगने में, उसके एक कटाक्ष का भिखारी होता है। क्या यही है वैशाली का स्वातंत्र्य-गौरव ? क्या इसी कापुरुषता की रक्षा के लिए आप चाहते हैं, कि वर्द्धमान तलवार उठाये, वह आपकी ढाल बने ?
'आपकी इस झूठी आत्मरक्षा के लिए नहीं, पर आपकी आत्मा की रक्षा के लिए, बेशक मैं स्वयं तलवार और ढाल बनूंगा। फ़ौलाद की तलवार नहीं, चैतन्य का खरधार खड्ग ले कर मैं स्वयं अपने और वैशाली के विरुद्ध उलूंगा। अपने ऊपर और वैशाली पर बिजलियाँ बन कर टूटुंगा। मैं बिंबिसार श्रेणिक को आगे रख कर, वैशाली का प्राचीन और जीर्ण परकोट तोडगा। मैं सरे राह उसे ले जाकर देवी आम्रपाली की गोद में डाल दूंगा, कि वे उसकी जन्म-जन्मों की प्यासी आत्मा को शरण दें। दमित वासना के जन्मान्तर व्यापी नागपाशों से उसे मुक्त करें। मागध अजातशत्रु के सैन्य-बल और वर्षकार के कौटिल्य को जीतने के लिए, मुझे शस्त्र और सैन्य की ज़रूरत नहीं। ये सारे विपथगामी और शत्रु, प्यार के प्यासे हैं। और अकिंचन वर्द्धमान के पास यदि कोई सत्ता है, तो केवल प्यार की। उसके प्यार में पराजय और जय वे एक साथ पायेंगे। और फिर भी यदि वे आक्रामक और घातक रह जायेंगे, तो केवल अपने : तब आत्मघात के सिवाय और कोई विकल्प उनके लिये नहीं रह जायेगा। . .
'मैं वैशाली को उस अनिवार्य सत्यानाश और आत्मघात से बचाना चाहता हूँ। क्योंकि मैं उसे सर्वकालीन मानव-आत्मा, और सत्ता मात्र की स्वतंत्रता का प्रतीक मानता हूँ। मैं उसे पृथ्वी पर जिनेश्वरों के सर्वशरणदायी धर्म-साम्राज्य का सिंहासन मानता हूँ। ___... तो भंतेगण सुनें, उसके लिए अनिवार्य है कि वैशाली के परकोट निःसैन्य हो जायें, वैशाली के शूरमा निःशस्त्र हो जायें। वैशाली के धनकुबेरों के कोशागारों,
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