SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६५ निपजी है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपना स्वभावगत कर्म त्याग कर, पथ-भ्रष्ट हुए हैं। उसका परिणाम है आपाधापी का यह अन्तहीन दुश्चक्र । वस्तु अपने आप में शुद्ध और स्वाभाविक है, पर अपने अहं, लोभ और अधिकार-वासना से हमने उसे भी विकृत और अराजक बनाया है। सो सम्वाद और मित्रता का स्थान विसम्वाद और शत्रुता ने ले लिया है। हमारे अपने ही अहं के सिवाय, बाहर हमारा कोई शत्रु नहीं है। पथ-भ्रष्ट ब्राह्मणत्व को सत्तासीन और बलवान क्षत्रिय ने धर दबोचा है। पाता क्षात्रत्व, बलात्कारी अपहर्ता हो गया है। कुलाभिमान से प्रमत्त होकर क्षत्रिय ब्राह्मणत्व को पैरों से रौंद रहा है। हम मानो अपनी ही भुजाओं से अपने मस्तक का भंजन कर रहे हैं । शीर्ष पर सदा वही होगा, जो ब्रह्म को जाने । जो स्वभाव से ही ब्राह्मण हो, और स्वधर्म में ही चर्या करे। ब्राह्मणत्व का यह भंजन मुझे असह्य है। ब्रह्मयोगी का आसन उच्छेद करके लोक में धर्मराज्य का संतुलन कायम नहीं रह सकता। मैं पददलित ब्राह्मणत्व को फिर से लोक की मूर्धा पर स्थापित करूंगा । मुझे उस महाब्राह्मण की प्रतीक्षा है, जो ब्रह्मज्ञानी के उस आसन पर आसीन हो सके । धर्मराज्य योगी ही स्थापित कर सकता है, भोगी नहीं । वह, जिसका भोग भी योग हो जाये, और योग भी भोग हो जाये। वैशाली की यह भूमि ऐसे ही एक राजयोगीश्वर की लीला-भूमि रही है। जनक विदेह के वंशधर होने के कारण ही हम विदेह कहलाते हैं, और हमारी यह भूमि तक विदेह देश कही जाती है। एक बात मैं कहे देता हूँ। राजसत्ता के सिंहासन पर एक दिन योगी को आना होगा। योगी को राजा होना पड़ेगा। उसके बिना पृथ्वी पर धर्मराज्य की स्थापना त्रिकाल सम्भव नहीं । . . 'शासन की म्र्धा पर जब तक योगी न हो, तब तक तुम्हारे ये सारे राज्य, वाणिज्य, व्यवस्था, प्रतिष्ठान गैरकानूनी हैं, अवैध हैं । वैध और क़ानूनी केवल वही व्यवस्था हो सकती है, जो सत्ता के स्वभाव पर आधारित हो । वर्तमान के सारे ही राज्य और वाणिज्य वस्तु-स्वभाव के व्यभिचार की उपज हैं। इसी से ये सब गैरकानूनी हैं । तुम्हारी यह 'प्रवेणी-पुस्तक', तुम्हारे ये सारे कानून, न्यायालय, सैन्य, कोट्टपालिका, नगरपालिका, सिक्का, शांति, सन्धि-विग्रह, सब अवैध और गैरकानूनी हैं। क्योंकि ये स्वधर्म पर नहीं, पारस्परिक स्वार्थों को प्रतिस्पर्धाओं और समझौतों पर आधारित हैं। ये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy