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________________ २६४ 'अज्ञात कुलशील हैं अम्बपाली, तो इसलिए नहीं कि तथाकथित अभिजात कुलीन लोगों की भोग-सम्पत्ति होकर रहें । भगवती माँ अज्ञात कुलशील ही होती हैं। ताकि वे कुलशील की क्षुद्र मर्यादा से अतीत हों।.मोहाविष्ट मानवरक्त से परे वे कुलातीत हों, अकुला हों, अनाकुला हों। जगदम्बा मानवनिर्मित सारी छद्म नीति-मर्यादा को तोड़ कर ही मानव देह में प्रकट होती हैं। ताकि द्रव्य के स्वतन्त्र परिणमन का वे प्रतिनिधित्व कर सकें। वे अवैध जन्मा भी हैं, तो इस लिए कि वैधता के छद्म शील में छुपे कुलशील के विधि-विहित व्यभिचार का वे पर्दाफाश कर सकें । सर्व को नग्न और निसर्ग कर देने के लिए ही, वे महाकाली सदा नग्न विचरती हैं। और मिथ्याओं के सर्वसंहार के लिए वे सिंहवाहिनी हो कर प्रकट होती हैं। 'भन्तेगण, कान खोल कर सुनें । पिप्पली-कानन में विराजमान इक्षवाकुओं की कुलदेवी अम्बा ही आम्रपाली के रूप में अवतीर्ण हुई हैं। आम्र-शाखा से औचक ही अम्बा बन कर चू पड़ी वे आकाश-पुत्री हैं। उस आकाशिनी माँ के उन्मुक्त आँचल पर हिरण्यों की होड़े लगा कर, हमने मातृघात और आत्मघात का अक्षम्य अपराध किया है। सर्व की माँ है अम्बा, इसी से तो वैशाली को आपस में कट-मरने से बचाने के लिए, और वैशालकों के पशु को पाशव-पाश से मुक्त करने लिए, उसने अपने अस्तित्व तक की बलि चढ़ा दी है। . . 'जीर्ण-जर्जर जगत के पुनरुत्थान के विधाता बन कर जो आये, वे सदा पालतू वैधता की पुरातन मर्यादाओं को तोड़ते हुए ही जन्में हैं। उनके अवतरण के साथ ही, मिथ्या हो गई मर्यादाएँ टूटी हैं, और नयी मर्यादाएँ स्वतः स्थापित हुई हैं। परापूर्व काल में मत्स्य-गन्धा के अवैध गर्भ से जन्मे थे भगवान वेद व्यास । कुलाभिमान को तोड़कर अकुलजात ब्रह्म-पुरुष का तेज पृथ्वी पर प्रकट करने को वे आये थे । शान्तनु के काम-प्रमत्त क्षात्रत्व का तेजोवध करके, इसी महाब्राह्मण ने अपने अजितवीर्य की यज्ञाहुति देकर, विकृत हो गये क्षात्रत्व को शुद्ध करने के लिए, अपने लिंगातीत ब्रह्मचर्य की बलि चढ़ाना भी स्वीकार किया था। पर भारतों ने उस ब्रह्मतेज को भी व्यर्थ करके ही चैन लिया। . . .इस तरह, इतिहास के आरपार, चारों ओर स्वभाव की ग्लानि देख रहा हूँ। स्वभावगत सोहंकार वैभाविक अहंकार हो गया है। उस विकृति में से लोभ का असुर जन्मा है। मैं और मेरा, तू और तेरा की अराजकता उससे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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