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युद्ध अनिवार्य होगा ही । मैं और मेरा मिट जाये तो मुहुर्त मात्र में सारा संकट समाप्त हो जाये।
'. • वही तो करने को मैं आया हूँ : इसी से निःशस्त्र और निष्कवच आया हूँ । शुद्ध, स्वभाविक, स्वतन्त्र, स्वयम् आया हूँ। अपने ऊपर आये हर कोश और कारा को तोड़ कर आया हूं, ताकि वैशाली कारागार न रह जाये, वह सर्व का अपना स्वतन्त्र आत्मागार हो जाये ।
____ 'आप कहेंगे वैशाली तो स्वतन्त्र है ही, क्योंकि वह गणतन्त्र है। उसमें कोई राजा नहीं, यहाँ का जन-जन राजा है। हर व्यक्ति यहाँ स्वतन्त्र है,
और अपने भाग्य का स्वयम् निर्णायक है। पर यह भ्रांति है, यह आत्मवंचना है। यहाँ का हर व्यक्ति स्वतंत्र और आत्मनिर्णय का अधिकारी मुझे नहीं दीखा। ऐसा होता तो आर्यावर्त की तेजशिखा, देवी आम्रपाली को गणिका के गवाक्ष पर बैठने को विवश न होना पड़ता। हमने उनके आत्म-निर्णय के अधिकार का अपहरण करके, उन्हें अपने काम का कैदी बनाया है। आपकी 'प्रवेणी पुस्तक' चाहे कितनी ही प्राचीन क्यों न हो : उसमें निर्धारित सारे कानून वासना को अपने हक़ में व्यवस्था देने के लिए रचे गये हैं। बाहरी व्यवस्था मात्र, काम और परिग्रह का सरंजाम और इन्तज़ाम है। परम्परा केवल एकमेव सत्य की ही अक्षुण्ण और शिरोधार्य हो सकती है। अन्य सब परम्पराएँ पर्याय की हैं, और द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के नित-नूतन परिणमन के अनुसार उन्हें पलट जाना होता है। इसी से कहता हूँ, 'प्रवेणी पुस्तक' के क़ानून, नूतन विश्व-परिणमन के साथ अपने आप ही टूट गये । खत्म हो गये । उन्हें पाले रख कर, हम परतंत्र ही कहे जा सकते हैं, स्वतन्त्र नहीं ।
'उस कानून के कारागार को सर चढ़ा कर, हमने देवी आम्रपाली और अपने गणतंत्र का सत्कार नहीं किया, उन पर बलात्कार किया है। सर्वमुन्दरी और सर्वप्रिया हैं वे, तो अधिकार और क्रय-विक्रय की वस्तु वे कैसे हो सकती हैं। निश्चय ही त्रिभुवन-मोहिनी हैं अम्बपाली । पर त्रिभुवन-मोहिनी वे गणिका होने के लिए नहीं, समस्त मानव-कुल की माँ-वल्लभा होने के लिए हैं। ताकि मनुष्य की जन्मान्तर-व्यापिनी सौन्दर्य-वासना को वे अपनी मात-ममता से दुलरा कर, उसे अपनी ही स्वाधीन आत्म-लक्ष्मी के सौन्दर्य का दर्शन करा सकें।
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