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तू और तेरा खड़ा होता है। मो मैं और मेरा का भाव ही, सारी उपाधि का मूल है। वह स्वभाव नहीं, विभाव है, सो वह सत्य नहीं, मिथ्या है । वह अज्ञान है, असत्य है । वह कुछ वह है, जो दरअसल है ही नहीं । मात्र प्रमादजन्य भ्रान्ति है, जो मूर्छा से उत्पन्न होती है । वह स्वभाव से गिर कर अभाव में जीना है । जो मेरा और वस्तु का स्वभाव नहीं, वह उसमें रहना है । वही असली पाप है । इसी मूर्च्छा को प्रज्ञों ने परिग्रह कहा है । और परिग्रह को ही उन्होंने सबसे बड़ा पाप कहा है । परिग्रह यानी अपने को और वस्तु को चारों ओर से घेर लेना, क़ैद कर देना । वस्तु को क़ैद कर, उसे लेकर व्यक्तियों और राष्ट्रों तक के बीच जो लड़ाई है, वह क़ैदियों के बीच है। यह कारा टूट जाये, तो सारा और सब स्वतंत्र हो जाये । और युद्ध सदा को समाप्त हो जाये ।
'मैं वस्तु और व्यक्ति से लगा कर, व्यवस्था और राष्ट्रों तक की उस कारा को तोड़ने आया हूँ । मैंने अभी संथागार के द्वार पर मंगल-पुष्करिणी का ताला तोड़ दिया और उसके मुक्त जल से जन-जन का अभिषेक कर दिया । तो वर्द्धमान भी विशेष नहीं रहा, वह अशेष, निःशेष हो गया। अब मुक्त वर्द्धमान, मुक्त वैशालिकों से बोल रहा है ।
4.
" आप कहते हैं, वैशाली पर संकट है, आक्रमण है । पर अभी जो जनगण का उल्लास मैंने देखा है, उसमें संकट मुझे कहीं नहीं दीखा । आक्रांति नहीं दीखी : दीखी तो अतिक्रान्ति दीखी : आनन्द दीखा । भीतर जो अभाव की खन्दक सब में है, उसे अतिक्रान्त कर सब को आनन्दित होते देखा । यानी मुझे सामने पाया, तो सब विभाव के अन्धकार को लाँघ कर स्वभाव में आ गये। तो भीतर जो अँधेरा है, भय है, वह मिथ्या है, मूर्च्छाजन्य है, क्षणिक है । सत्य और संचेतन जो है, वह तो वह वैशाली है, जो मैंने अभी देखी ।
'मैंने जो अभी देखा, वह वैशाली का ऐश्वर्य है, अभिशाप नहीं । अभिशाप जो हम देख रहे हैं, वह हमारा मात्र अज्ञान है। वर्ना तो ऐश्वर्य यहाँ अनन्त और अव्याबाध है । ऐश्वर्य ईश्वरीय है, वह पुरुषीय है ही नहीं । मैंने यहाँ जन और धन का वह मुक्त ऐश्वर्य देखा । कारा हमारे मन में, हमारे अज्ञान में है, जिसे अपने ऊपर और वस्तु पर लाद कर हमने अपने बीच आक्रान्त और आक्रामक का द्वंद्व उत्पन्न कर लिया है । मैं और मेरा, तू और तेरा का यह परिग्रह जब तक रहेगा, तब तक विग्रह रहेगा ही :
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