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'आये हो मेरे पास, तो एक बात तुमसे तुम्हारे मन की थाह न पा सकी । फिर भी तुम्हारा अन्तरंग जानने की इच्छा होती है ।'
पूछनी है । तुम्हारी मां तक एक बार हो सके तो रूबरू
'इससे अधिक सुख मेरा क्या हो सकता है, कि आप मेरा मन जानें, मुझे जानें। आप निःसंकोच पूछें, मैं प्रस्तुत हूँ ।'
'कलिंगराज जितशत्रु की बेटी यशोदा, कालोदधि समुद्र के मुक्ता - फल-सी मोहक सुनी जाती है। कहते हैं, उसकी कान्ति क्षण-क्षण नव्य-नूतन होती है । मन ही मन वह तुम्हारा वरण कर बैठी है । कहती है, केवल तुम्हारी नियोगिनी है वह तुम हो एकमात्र उसके नियोगी पुरुष | जम्बूद्वीप के अनेक राजपुत्र उसके पाणि-पद्म के प्रार्थी हैं । पर उसने सारे माँगे लौटा दिये हैं । तुम्हारी बाट जोहती बैठी है। कलिंगराज सन्देशों पर सन्देश भेज रहे हैं । क्या कहते हो तुम ?'
'नियोगिनी मेरी कौन नहीं है, तात ! लोक की सारी ही कुमारियाँ मुझे तो अपनी नियोगिनी लगती हैं । तब चुनाव का तो प्रश्न ही नहीं उठता। नव स्वीकृत हैं मुझे, तो कलिंगराज - नन्दिनी क्यों अस्वीकृत होंगी ?'
'सव नियोगिनी हैं, तब तो सम्बन्ध का सूत्र ही हाथ नहीं आता ।'
'सम्बन्ध का एक मात्र यही सूत्र मुझे स्वीकार्य है, बापू । यही एक सम्यक् और सच्चा सम्बन्ध हो सकता है । और सारे सूत्र कम पड़ते हैं, क्योंकि वे क्षणिक और परिवर्तनशील हैं । नित्य और सत्य सम्बन्ध के अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध मेरा तो हो नहीं सकता ।'
'समझा नहीं मैं ? '
'नियोगिनियाँ तो कई जन्मों की जाने कहाँ-कहाँ होंगी मेरी । जाने कब कौन कहाँ मिल जाये, क्या उसका दावा झूठ मानूँगा ? स्वीकारते ही तो बनेगा । विवाह और अन्तःपुर की सीमा में वे सब कैसे सिमटें ? '
'तो क्या विवाह नहीं करोगे ?'
'करना मैंने कुछ भी अपने हाथ नहीं रक्खा, बापू । जो है, जो होगा वह सब मेरा ही तो है । तब अलग से अपनाने की छूट कहाँ रह जाती है । जो सम्मुख आये, उस सब का स्वागत ही तो कर सकता हूँ ।'
'प्रकट है कि विवाह तुम नहीं स्वीकारते, और नियोगिनी तुम्हारे मन नगण्य है ।'
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