________________
२५३
' नगण्य वर्द्धमान के लिए कुछ भी नहीं । सभी उसके मन वरेण्य हैं । अन्तर केवल इतना है कि नियोगिनी नहीं, मुझे योगनी चाहिये । नियोग मात्र नैमित्तिक और नाशवान है । केवल योग ही स्वायत्त और अविनाशी है । मेरे सम्बधों का आधार है नित्य योग, क्षणिक भोग नहीं । विवाह, नियोग और भोग में, वियोग अनिवार्य है । क्योंकि वह सब खेल मोह का है, मूर्च्छा का है, मोहिनी कर्म का है । सो मुझे नियोगिनी नहीं, वियोगिनी नहीं, योगिनी चाहिये ।'
'तो वह भी तो कहीं होगी ही, और कभी आयेगी ही ! आखिर कब ? '
'वह कहीं और कभी से परे, सदा अभी और यहाँ है, देव! नहीं तो ि योगिनी कैसी ? देश और काल सापेक्ष जो है, वह योग कैसे हो सकता है, उसमें तो बियोग और मृत्यु बद्धमूल है ।'
'अभी और यहाँ है वह योगिनी तुम्हारी ? मतलब
· ? '
'मतलब कि वह तो भीतर के अन्तःपुर में सदा प्रस्तुत बैठी है । भीतर गये कि उसके आलिंग की बाँहें फैली हैं, हमें समेटने को ऐसा रमण जो विरमण जानता ही नहीं !'
'समझ रहा हूँ, आयुष्यमान् ! समझ यहाँ समाप्त दीखती है। जो समझ से परे है, उसे समझने की कोशिश ही ग़लत है। काश, मैं सम्बुद्ध हो सकता ।'
'वह हैं आप, वह अन्यत्र और अगले क्षण में कहीं नहीं है। आप जो अपने को नहीं मानते, वही तो एकमात्र हैं आप '' पिता पराजित से अधिक प्रसन्न दीखे : अपने बावजूद, अपने आप हुए लगे । 'तो कल प्रभात बेला में, आप मुझे सिंह- तोरण पर प्रस्तुत पायेंगे ।' महाराज उठ कर मुझे द्वार तक पहुँचाने को बढ़े, तब तक मैं जा चुका था ।
उत्तर-पूर्व के कोण - वातायन पर, नीहार में नहा कर उठती-सी ऊषा फूट रही है । मैं तैयार हो कर कक्ष में टहल रहा हूँ। सहसा ही सिंहपौर पर मंगल का शंखनाद और घण्टा रव सुनाई पड़ा। फिर दुंदुभियों का घोष और अनेक प्रकार की तुरहियों का समवेत स्वर उठने लगा । रेलिंग पर से झाँका, राजद्वार से लगा कर जहाँ तक मार्ग दीखा, नाना रंगी फूलों और पल्लवों के वितान से छाई वीपी, कदली-स्तम्भों के बने द्वारों में से होकर दूर तक चली गई है।
देखा कि ठीक सामने की ऊषा के रंग का ही उत्तरासंग और अन्तरवासक धारण किये हूँ । अनायास ही तो ऐसा हुआ है। तभी छत में दिखाई पड़ा, अपूर्व
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org