SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५१ अधिक मूल्यवान और पवित्र कुछ नहीं। माँ और वल्लभा का सतीत्व भी उनके लिए गौण हो सकता है। फिर बेचारी मातृभूमि की क्या कीमत ! वह उनके मन जड़ धरती से अधिक माने नहीं रखती, जिसे अपनी तलवार और सुवर्ण से वे खरीद और बेच सकते हैं । ताकि रत्न-गर्भा वसुन्धरा को वे मन चाहा संत लें।' . 'बेटा, मैं तो तुम्हें निपट सौम्य जानता था। कल्पना न थी कि इतने उग्र भी तुम हो सकते हो । कभी तुम्हारी आवाज़ तक इस राजमहल में नहीं सुनाई पड़ी। और अब देखता हूँ कि ज्वालामुखी बोल रहा है . ' !' 'मैं नहीं बापू, महाशक्ति बोल रही है, और मैं भी उसे सुन रहा हूँ। उसका साक्षात्कार करके मैं स्वयम् स्तम्भित हूँ।' 'इष्ट ही है बेटा, इस समय वैशाली को तुम्हारी आग की ज़रूरत है। रूप उसका जो भी हो। महाधनुर्धर महाली धनुर्वेद के एक विकट प्रयोग में, अचानक आँखें खो बैठे हैं। तो मानो सारी वैशाली अन्धी हो गई। हमारे दुर्भाग्य की पराकाष्ठा हो गई। तुम्हारे मामा महानायक सिंहभद्र तक इस दुर्घटना से एकदम हताहत हो गये हैं। कहते हैं, मेरी दक्षिण भुजा टूट गई, मेरा धनुष भूलुण्ठित है।' ___ 'मगर सुनता हूँ, तात, सिंह मामा तक्षशिला के आचार्य बहुलाश्व की वीरांगना बेटी को ब्याह लाये हैं। कहते हैं, सौ तने धनुषों की ताक़त, अकेली रोहिणी मामी की बाँयीं भुजा में है। आर्यावर्त के पंक्तिबद्ध धनुर्धर एक ओर हों और गान्धारी रोहिणी एक ओर हो, तो भारी पड़ती है। सुनता हूँ साक्षात् रणचण्डी हैं मेरी रोहिणी मामी । सिंह मामा ऐसी बायीं भुजा के रहते भी, इतने निराश कैसे हो गये · · · ?' कुछ भी हो बेटा, आखिर तो स्त्री है। कोमल कान्ता ही ठहरी न ।' ‘पर यह कान्ता जब काली हो उठती है, तो कराली काली हो जाती है, तात! गान्धार की उस. महाकाली को एक बार देखना चाहता हूँ।' _ 'उसी ने तो तुझे बुलाया है बेटा, तुरन्त । चेटकराज के सन्देश के साथ अनुरोध-पत्र तो रोहिणी का ही है। वह अविलम्ब तुझ से मिलना चाहती है।' 'अहोभाग्य, पितृदेव ! तो कल सबेरे बड़ी भोर हम प्रस्थान कर जायेंगे।' 'साधु बेटा, साधु · · ·!' और मैं चलने को उद्यत हुआ कि महाराज सहसा बोले : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy