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________________ २४७ 'तो सुन वर्द्धन, अजातशत्रु और वर्षकार चंपा के निगंठोपासक श्रावकश्रेष्ठियों के महालयों में घुस कर, चंपा के विनाश का षड्यंत्र रच रहे हैं। और चंपा के ये श्रेष्ठी, जिन-शासन के अनुयायी, हमारे सहधर्मी हो कर भी दोहरी बाजी खेल रहे हैं। एक ओर श्रावक-श्रेष्ठ महाराज दधिवाहन के प्रति इनकी राजभक्ति का अंत नहीं; दूसरी ओर अपनी अमित सुवर्ण-राशि से ये अजातशत्रु को वशीभूत कर, साम्राज्य का सौदा अपने हित में करना चाहते हैं। वर्तमान राजा और भावी राजा, दोनों को अपनी मट्ठी में रखकर, अपने न्यस्त स्वार्थ की खातिर, जिनेश्वरों की आदिकालीन शासन-भूमि चंपा को किसी भी जिनद्रोही के हाथ बेच देने तक मे इन्हें कोई हिचक नहीं। · · लगता है, जैसे व्यापारी के आत्मा जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं · · !' ___सो तो नहीं होती, मौसी ! फिर ? · · ·और भी कुछ कहना है ?' ____ 'शील-चंदना बहुत संवेदनशील और गहरी लड़की है, मान। आईत्-धर्म की यह ग्लानि उसे असह्य है। चंपा होती हुई आयी हूँ, और अपनी आंखों सब देख आयी हूँ। शील के आँसू सहे नहीं जाते। चंपा के ध्वंस के सपने उसे रात-दिन सता रहे हैं। और उसके कौमार्य पर साम्राजी तलवारों की झन-झनाहट मंडरा रही है। कहा न, मान, अपना ही घर फूट गया है ! बोल, कहाँ जाऊँ, क्या करूँ ? क्या ऐसे में भी तू चुप ही रहेगा? सबकी आँखें, केवल तुझ पर लगी है, वर्द्धमान !' 'सुनो मौसी, कोई ठीक-ठीक नहीं जानता कि वह क्या चाहता है। लिप्सा सुवर्ण की है, राज्य की है, रूप की है या अपने ही रक्त की ? किसी को नहीं मालूम । हर कोई अपने ही विरुद्ध उठा है। अपना ही शत्रु हो उठा है। यह जड़ की बात है, मौसी। काश, तुम्हें समझा सकता ! काश, हम पहले अपने ही को प्यार कर सकते, अपने ही मित्र और सम्राट हो सकते ! • • हो सके तो मगधेश्वर को, मैं इस सत्यानाश के दुश्चक्र से निकालना चाहता हूँ । मुझे बिंबिसार की ज़रूरत है ! . . . 'तू मिलेगा उनसे ?' 'नहीं, ठीक समय पर वही आयेंगे !' 'पर आग तो लगी हुई है ! • • ‘अभी और यहाँ बचने का कोई उपाय नहीं ?' "है। पर युद्ध अनिवार्य है। वैशाली का गण-पुत्र वर्द्धमान इस युद्ध का परिचालन करेगा। वह इसका स्वयं-नियुक्त सेनापति होगा। राज्य और सैन्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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