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________________ २४३ मौसी, षट्खंड पृथ्वी का चक्रवर्तित्व भी उन्हें तृप्त न कर सकेगा, यह तुम मुझसे जान लो !' महिषियों की आभिजात्य मर्यादा जैसे आघात पा कर चौंकी । 'उनका साम्राज्य - स्वप्न वैशाली पर अटका है, वर्द्धमान । सोचते हैं कि वैशाली जय हो, तो सारे जंबूद्वीप पर उनकी एकराट् सत्ता हो जाये ।' 'उनकी आँखें वैशाली से अधिक आम्रपाली पर लगी हैं, मौसी ! काश, तुम जान सकती कि मगधेश्वर की साम्राज्य - अभीप्सुक तलवार, देवी आम्रपाली के रातुल चरणों में समर्पित है। सम्राज्ञी की आँखें नीची हो गयीं । क्षण भर चुप रह कर बोलीं : 'सो तो तुम जानो, मान ! ... शायद उन्हें तुम मुझसे अधिक जानते हो । पर इतना मैं अवश्य जानती हूँ कि एकदम ही बालक है उनकी आत्मा । लेकिन उनके दर्प और प्रताप को सम्मुख पा कर हार जाती हूँ ।' 'हारती तुम नहीं, हारते हैं श्रेणिकराज, मौसी ! चेलना को पा कर भी वे वैशाली को नहीं पा सके ! काश, वे मेरी मौसी को पहचान सकते ।' 'मुझे कम नहीं मानते वे वर्द्धमान। चारों ओर के कूट चक्रों और युद्धप्रपंचों से उद्विग्न हो कर, अचानक आधी रात आते हैं । मेरी गोद में सिर डाल कर, गहरी उसाँसें भरते रहते हैं । कुछ पूछने को जी नहीं करता । इतने हारे दीखते हैं, कि करुणा से कातर हो जाती हूँ । केवल यही चाहती हूँ, कि मेरी छुवन से उन्हें समाधान मिले। वे शांति पायें, और सो जायें ! ' 'शांति पाते हैं वे तुम्हारे पास ?' 'बस उतनी ही देर । फिर वही उचाट । और फिर कई दिन दर्शन दुर्लभ | मंत्रणा - गृह में, या फिर अपने एकाकी शयन कक्ष में । या फिर कई दिन गायब । काश, उनकी मर्म-व्यथा को जान सकती ।' 'ब्राह्मणी- पुत्र अभय राजकुमार के पास है, सम्राट के हृदय की कुंजी । महारानी नंदश्री का यह बेटा, अपने सम्राट - पिता का पिता और सखा एक साथ है। वही एक दिन बाप की चाह पूरी करने को, वैशाली की रूपशिखा चेलना का हरण कर गया था। क्या तुम सोचती हो कि अभय से उनकी कोई गतिविधि छुपी रह सकती है ? ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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