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जब तू एक बार जंगलों से खेल कर लौटा था ? तेरे बिथुरे बालों में घास, फूल, पत्ते उलझे थे, और मैंने तुझे उठा कर समूचा छाती में भर लिया था । और आज
'आज भी वही हूँ, मौसी । यही न, कि बड़ा सारा हो गया हूँ । और तुम संकोच में पड़ गयीं ! 'अपनी बाँहों को कुछ फैला लेतीं, तो क्या उनसे
बाहर रह पाता मैं ?'
'वह तुमने संभव ही नहीं रक्खा । तुम तो मगध की सम्राज्ञी से मिलने आये । माँ के आँचल को चुनौती देते आये । और तुम्हारी भृकुटियों के बीच, एक चक्र देखा मैंने । तुमने मुझे रहने ही नहीं दिया, बेटा । किसी से कोई लगाव नहीं रहा तुम्हें ? क्या हमारे कोई नहीं हो तुम ?
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'मैं किसका नहीं हूँ, कि तुम्हारा न हो सका ? फिर क्यों तुम मुझे अपना नहीं पायीं ? और मगध की महारानी तो इस लिए कहना पड़ा, कि इस समय मौसी से अधिक मेरा सरोकार उनसे है । ' मैं वैशाली का एक रजकण हो कर आया, कि सम्राज्ञी अपने सम्राट को ख़बर कर दें कि क्या देख आयीं हैं, किससे मिल आयीं हैं. !
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'ख़बर तो उन्हें क्या, हवाओं कौन हो ! इसी से हिम्मत करके धारा से तुम्हीं हमें उबार सकते हो।
और समुद्रों तक को हो गयी है कि तुम यह कहने आयी हूँ, कि सर्वनाश की इस और कहीं, कोई त्राण नहीं दीखता ।' 'मगधेश्वर की कुशल पूछता हूँ, और उनकी मंगल कामना करता हूँ सम्राट वैशाली चाहते हैं, तो कह दो कि मिलेगी उन्हें । पर उनकी राह नहीं, मेरी राह । महामात्य वर्षकार की कुटिल चाल से नहीं, मेरी सीधी और सरल चाल से । साफ़ बताओ, वे क्या चाहते हैं ?'
'मुझे तो यही लगता है, मान, कि वे स्वयं नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं ? कुटिल और कोई हो चाहे मगध में, वे नहीं हैं । इतना जानती हूँ, कि अपने राज करने को उन्हें मगध छोटा लगता है । सागर-पर्यंत पृथ्वी से कम कोई साम्राज्य उन्हें तृप्त नहीं कर सकता । साम्राज्य की लौ-लगन में ही वे दिन-रात जीते हैं ! '
'साम्राज्य से अधिक सुंदरी की लो- लगन में जीते हैं श्रेणिकराज ! अच्छी बात है यह । ' पर वह स्वप्न - सुंदरी नहीं मिल पाती, तो उसकी छटपटाहट में, साम्राज्य के व. ल्पित विस्तारों में अपनी भुजाएँ पछाड़ रहा है योद्धा । नहीं
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