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________________ २४१ ' 'वैशाली का एक जनगण हूँ मैं, सम्राज्ञी ! मगधेश्वरी से इसी नाते मिलने आया हूँ, मेरा यह गौरव अक्षुण्ण रहे, प्रार्थी हूँ · · · !' चेलना का हाथ जैसे वासुकी नाग के फणा-मंडल पर पड़ गया हो। वे / चौंकीं। मुझे विस्मित-सी ताकती रह गयीं : और फिर वह सारा चेहरा प्रार्थनाकातर हो आया। _ 'मगध की महारानी का मुकुट, वैशाली के इस जनगण के चरणों में भिक्षार्थी है ! . • संतुष्ट हए तुम, मान? हमारे रक्त से तुम इतने बेलाग? कैसे कहूँ · · · 'बेटा' ? मेरा अपनत्व मुझसे छीनते तुम मिले । मेरी जीभ की नोक पर आये 'बेटा' शब्द को तुमने अपनी उँगली से जैसे हँस कर दबा दिया। . . ठीक है !' ___हम मीना-खचित, मसृण रेशम के गद्दों वाले सुखपालों पर व्यवस्थित हो चुके हैं। आपाद-मस्तक अकल्प्य रत्नाभरणों और जामुनी कौशेय में सज्जित, मगध की पट्ट-महिषी को मैंने ऊपर से नीचे तक समग्र साक्षात् किया। कपिशा के लाल अंगूरों की रक्तिम वारुणी के चषक में, जैसे एक निर्मल हीरा तैर रहा हो। अभिजात सौंदर्य की यह पराकाष्ठा है। भरा-भरा केशरसा पीला गात, साँचे ढले अवयवों की तराश और सुधरता। कोई अप्रतिम सुंदर शिल्पाकृति जैसे एकाएक सजीव हो उठने का आभास दे रही हो । रभस-रस से भरी इस गभीर कादंबिनी को मानो बिजली की झालरों ने बांध रक्खा है। यह केवल सम्राज्ञी नहीं, केवल विलासिनी नहीं, केवल अंकशायिनी नहीं । अभ्रंकश है यह नारी। कीचड़ में से ही फूट कर, उसे कृतार्थ किया है इस कमल ने। · · · मौसी स्तब्ध और उदास बैठी रह गयीं हैं। माँ रुआंसी और सब कुछ झेलती-सी चुप हैं। एक गहरी चुप्पी के तट पर हम तीनों उपस्थित हैं। 'मौसी, नाराज हो गयीं ? पहली बार बेटे से मिली हो, बलायें भी नहीं लोगी ? · . .' ___ दोनों ही बहनें एकदम मुक्त हो, उमग आयीं। भर आते-से गले से मौसी बोली : 'मान, और किसलिए आयी हूँ ? सुना था, सूरज हो। बड़ी साध थी इस सूरज बेटे को गोद लेने की। · · लेकिन सामने पा कर देखा, कि सूरज को गोद नहीं लिया जा सकता । छुटपन की याद है तुझे, मान, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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