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________________ सूरज को गोद नहीं लिया जा सकता बरसों बाद माँ के इस शयन कक्ष में आया हूँ। मेरी चेतना स्मृतियों से अनुकूलित नहीं, सहज ही विकूलित है। एक नदी आदि से अंत तक जो एक अखंड धारा है । कूल - किनारे उसमें झाँक कर पीछे छूट जाते हैं । सो हर बार, हर कहीं आना मेरे लिए नया ही होता है । मेरे गर्भकाल में बरसे दिव्य रत्नों से मंडित है यह सारा कक्ष । शयाएँ, आसन, दीपाधार, दीवारें, फर्श, छतें, झूमरें, सब उन्हीं आकाशी रत्नों से निर्मित और जड़े हुए हैं । इनमें से बहती तरल आभा में जाने कितनी समवेत अनादि सुगंधें तरंगित हैं। सौंदर्य और ऐश्वर्य का यह लोक, पार्थिव से कुछ अधिक लगता है । एक ऐसी अन्यत्रता है यहाँ, जो चेतना को बांधती नहीं, अधिकाधिक खोलती है । इसमें परिग्रह नहीं, अपरिग्रह का बोध है । मानो जो नारी यहाँ रहती है, वह यहाँ अवरुद्ध नहीं, उद्बुद्ध है। माँ, तुम्हें जानता फिर भी पूरी कहाँ पहचानता हूँ। मैं अभी यहाँ आया हूँ, खड़ा हूँ, प्रतीक्षा में हूँ । निरा अतिथि । अजनबी । · सुगंध एकाएक महीन झंकार होती प्रतीत हुई । सामने की दीवार की मणिमाया जैसे एक पर्दे की तरह सिमट गयी । कमल - केसर-सी पीताभ एक पूर्णकाय स्त्री झलमलाती जोत की तरह सामने आती दिखाई पड़ी । और उसके पीछे आ रही हैं, महारानी त्रिशला देवी । 1 मेरी माँ । 'काश्यप वर्द्धमान, मगध की महारानी का अभिवादन करता है ' ' ' ! ' ऐसा कुछ देखा सामने, कि आँखें वहाँ से हटा कर, चरण छूने का उपचार बीच में न आ सका । तो 'बड़ा आया महारानीवाला ! मौसी को नहीं पहचानता क्या रे ? फिर कहूँ कि वैशाली के महाराज कुमार जयवंत हों ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only .... www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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