________________
२६८
कर रह गई। सिद्धान्त अनेकान्त रह नहीं पाता। सिद्धान्त जिन्होंने बनाये हैं, उन्होंने प्रकृत अनेकान्त सत्ता के अनन्त को सान्त और समाप्त कर दिया है। सिद्धान्त मात्र मिथ्यादर्शन है, वह सम्यकदर्शन नहीं । केवलज्ञान का सिद्धान्त नहीं बन सकता। त्रिलोक और त्रिकालवर्ती पदार्थ का ज्ञान अनन्त और अकथ्य है, सो वह सिद्धान्त से अतीत है। इसी से जो अब तक न हुआ, वह आगे भी न हो सकेगा, यह कथन सत्ता की मौलिक अनुभूति के विरुद्ध पड़ता है।'
'तुम्हारी बातों से भीतर के आधार टूट रहे हैं, नीवें हिल रही हैं, मान ! सत्ता में ठहरना कठिन हो जाता है।'
'मानसिक धारणा और परम्परागत ज्ञान से बने आधार और नीवें टूट जाना ही इष्ट है, माँ। आज नहीं तो कल, स्वानुभव की प्रत्यक्ष चोंट उन्हें तोड़ेगी ही । और सत्ता स्वतंत्र है। केवल उसी में तो ठहरना सम्भव है। हूँ, हो, और है में तो सन्देह सम्भव ही नहीं । क्योंकि वह स्वानुभूत
और स्वयम्-सिद्ध है। मात्र इन तीनों के बीच के सही सम्बन्ध को प्रत्यक्ष देखना, जानना और उसमें जीना है । वही सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं। इस मैं, तुम, वह के बीच के सम्यक् सम्बन्ध, सह-जीवन और सहअस्तित्व को स्वरूप में जैसा साक्षात् कर रहा हूँ, वही तो मैं कह रहा हूँ। और केवली के केवलज्ञान से यह मेरा साक्षात्कार या अनुभव तरतम नहीं है, यह दूसरा कोई कैसे कह सकता है ? सत्ता अतर्क्स और अनिर्वच है।
और चूंकि वह अनन्त है, इसी से विभिन्न प्रगतिमान आत्माएँ उसे अपूर्व रूप से देख, जान और जी भी तो सकती हैं।' _ 'बेचारी वैशाली और मगध जाने कहाँ छूट गये! · · क्या इस तत्वज्ञान से ही वैशाली का त्राण करेगा? मगध और जम्बूद्वीप में चक्रवर्तित्व क्या इससे होगा? कैसी अनहोनी बातें कर रहे हो, बेटा! धर्म और कर्म अपनीअपनी जगह पर हैं। हाँ, धर्म-पूर्वक कर्म करो, यह समझ सकती हूँ।' ___ 'पूर्वक नहीं मां, धर्म को ही कर्म में प्रतिफलित होना होगा। धर्म और कर्म के अलगाव से ही तो सृष्टि का सारा इतिहास प्रतिक्रियाओं का दुश्चक्र हो कर रह गया है। वस्तु-धर्म को ही कर्म में परिणत हो जाना पड़ेगा। सत् को ही तत् हो जाना होगा। उसके बिना निस्तार नहीं । समस्या का कोई समाधान नहीं । तत्व के साथ अस्तित्व को सम्वादी बनाये बिना, वैशाली
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org