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________________ २३७ 'उलझा नहीं रहा, माँ, चिरकाल से इतिहास-पुराण में चली आ रही उलझन को सदा के लिए सुलझा रहा हूँ । लौकिक और लोकोत्तर मुक्ति को मैं अलग करके नहीं देख पा रहा। इन्हें आज तक अलग करके देखा गया, इसी से उलझन, द्वंद्व, अन्तर-विग्रह, समस्याओं का अन्त नहीं । मौलिक महासत्ता में लौकिक और लोकोत्तर का भेद नहीं । लोक से परे सत्ता कहीं है ही नहीं : मोक्ष और सिद्धालय तक लोक से परे नहीं । लोकोत्तर और लोकोतीर्ण होने का अर्थ है, एक बारगी ही स्वयम् समस्त लोक हो जाना : लोकाकार हो जाना । जो आत्मजयी होगा, वह अनायास ही लोकजमी होगा ही । इस मौलिक और अविनाभावी सत्य की प्रतीति मुझे स्पष्ट हो गई है। इसी से मैं अपनी और लोक की मुक्ति को अलग करके नहीं देख सकता । मैं अपनी आत्मिक मुक्ति को समग्र विश्व की लौकिक मुक्ति तक में प्रतिफलित और घटित देखना चाहता हूँ। मैं सिद्धालय के अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य को लोकालय में प्रकाशित देखना चाहता हूँ ।' 'असम्भव बेटा, आज तक तो कोई तीर्थंकर, अरिहंत, या सिद्ध यह नहीं कर सका ! उनसे भी बड़ा होने का दावा करता है क्या तू ? ' 'दावा मैं नहीं करता। जो मेरा अभीप्सित है, उसे मैं केवल करता हूँ, माँ । जीवन के प्रतिक्षण में, अभी और यहाँ उसे जीता हूँ। बड़ा और छोटा मैं किसी से नहीं । केवल स्वयम् हूँ। और अपूर्व तो मैं या कोई भी हो ही सकता है । सत्ता अनन्त गुण- पर्यायात्मक है । यह उसके स्वभाव में ही नहीं, कि जो अब तक न हो सका, वह आगे भी न हो सकेगा । और आज जो गुण- पर्याय सत्ता की प्रकट हो रही हैं, वे पहले भी हो चुकी हैं, और मात्र दोहराव हैं, इसका किसी के पास क्या प्रमाण है ? और सत्ता को जब जिनेश्वरों ने अनन्त परिणमनशील कहा है, तो उसमें पुनरावर्तन देखना, क्या मिथ्या - दर्शन और अज्ञान ही नहीं है ? ' 'पर अब तक के अरिहन्तों ने फिर ऐसा क्यों न कहा ?' 'अरिहन्तों ने जो जाना और कहा, क्या वह शब्दों में सिमट सकता था ? उन्होंने अनन्त जाना, और वह अनन्त कथन में कैसे अँट सकता था । इसी से तो उसे मात्र बोधगम्य, अनुभवगम्य, अनिर्वच कहा गया। इसी से तो तीर्थंकर की दिव्य-ध्वनि सदा शब्दातीत ही रही। शब्दों में बँध कर श्रुतज्ञानियों और आचार्यो तक आते-आते तो वह मात्र परिमित सिद्धान्त हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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