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'युद्ध ? कैसा युद्ध है यह ?'
'जानती तो हो, वैशाली संकट में है। चेटकराज यही तो कहने आये थे, कि महाधनुर्धर महाली और सिंह मामा की अजेय धनुर्विद्या काफी नहीं होगी। मुझे लगता है कि संकट गहरा और विश्व-व्यापी है। वैशाली के राजकुमार वर्द्धमान से उन्हें दिग्विजयी चक्रवर्ती की आशा है। उन्हें त्राता चाहिये । बोलो, क्या इनकार करता उन्हें ?' ___ 'वैशाली' को तुम अजेय रक्खो, यह मुझ से अधिक कौन चाह सकता है। और मेरी छाती गर्व से फूल उठी यह सुन कर, कि तुम उसके लिए सन्नद्ध हो। पर योद्धा अन्न-वस्त्र त्याग कर युद्ध की राह पर निकल पड़ा है ! समझ न सकी, यह कैसा युद्ध है?'
_ 'ऐसा युद्ध, माँ, जो इतिहास में पहले कभी न लड़ा गया। ऐसी लड़ाई, जो सतहों पर नहीं, तहों तक में मुझे लड़नी होगी। सिर्फ बाहर नहीं, भीतर की ख़न्दकों में, अतलान्तों में। भला बताओ, उन खन्दकों में अन्न-वस्त्र, माँ की स्नेह-चिंता और ममता कहाँ मिलेगी। सो उसे जीतना होगा कि नहीं?'
'खन्दकें ? · · · ये कौन सी खन्दकें हैं, मान?'
'हाँ, चारों ओर खन्दकें हैं, माँ । राष्ट्र और राष्ट्र, जाति और जाति, देश और देश के बीच खन्दक है। मनुष्य और मनुष्य के बीच ख़न्दक है। माँ और बेटे के बीच खन्दक है। प्रियतमा और प्रियतम के गाढ़तम आलिंगन के भीतर तक खन्दक है। कण-कण के बीच खन्दक है। जीव-जीव, प्राणि-प्राणि, प्राणप्राण, हृदय-हृदय, मन-मन, आत्मा-आत्मा के बीच खन्दक है, माँ । स्वयम् अपनी ही एक साँस और दूसरी साँस के बीच खन्दक है। अपने ही तन, प्राण, मन, आत्मा के बीच अलंघ्य अँधियारे पाताल पड़े हैं। अपनी ही साँसें आपस में लड़ रही हैं। अपना मूल शत्रु अपने ही भीतर छुपा बैठा है। मेरा युद्ध उसी के विरुद्ध है, माँ। मगध को जीतने के लिये, पहले उसे जीतना होगा। अपने को जीतना होगा । वह जय हो जाये, तो मगध और जम्बूद्वीप क्या हैं, कण-कण और क्षण-क्षण पर अप्रतिहत और अजेय सत्ता स्थापित हो जाये। · · उसी अनिरुद्ध युद्ध की राह पर चल पड़ा हूँ, माँ, आशीर्वाद नहीं दोगी?' ___'वह क्या अलग से देना होगा? मेरा आँचल, मेरा अस्तित्व, मेरी हर साँस और क्या है ? पर यह तो लोकोत्तर मुक्ति का मार्ग हुआ, बेटा। राज्य और प्रजा के लौकिक त्राण से इसका क्या सरोकार? जो इस राह गये, उनके लिए मगध क्या और वैशाली क्या, दोनों ही नगण्य और त्याज्य हो रहे। देख रही हूँ लोकोत्तर और लौकिक को आपस में उलझा रहे हो।'
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