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________________ २३५ _ 'तो सुनो बेटा, तुम्हें किसी से प्रमता नहीं, मुझ से भी नहीं। यह तो दीये जैसी साफ बात है। पर अन्न-वस्त्र तक से तुम्हें शत्रुता हो गई ? तुम्हारी इस देवोपम काया ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो इस पर भी तुम अत्याचार कर रहे हो। अपने ही तन-मन तुम्हारे मन बैरी हो गये, फिर मेरी क्या बिसात ! . . . ' 'लगता है, तुम्हे भ्रांति हो रही है, माँ ।' 'भ्रांति ? अपनी इन आँखों घड़ी भर पहले जो देख गई हूँ ! शीतकाल की यह हिमानी रात । तीर-सी ठण्डी ये हवाएँ।' · ·और इस खुली छत में तुम . . निर्वसन ? क्षण भर पहचान न सकी कि तुम हो या कोई मर्मरी पाषाण-मूर्ति · · · ?' __ 'ओ' । “समझा ! कब क्या होता है मेरे साथ, मुझे पता नहीं रहता, अम्मा! यह सब मेरे लिए नया नहीं है। शायद तुमने पहली बार देखा। इसी से · · · ।' ___ 'तो' - तो इसे क्या समझू ?' 'तुम लोग जिसे कायोत्सर्ग कहते हो न, मैं उसे कायसिद्धि कहता हूँ, काय-जय · · !' 'कायोत्सर्ग में बेचारा कपड़ा कहाँ आड़े आता है। मनियों की बात अलग है। तुम्हारा तो अभी कुमारकाल भी नहीं बीता। अभी राज्य और गार्हस्थ्य के कर्तव्य तुम्हारे सामने हैं। और तुम हो कि · · · ।' 'तुम कपड़े की कहती हो, मुझे काया तक का ध्यान नहीं रहता, माँ । क्या करूँ ! और मेरा कौमार्य कालगत नहीं, अम्मा। वह मेरे मन शाश्वत है। सो उसके बीतने की तो बात ही नहीं उठती मेरे लिए। और राज्य और गार्हस्थ्य, जो लोक में रसातल को चला गया है, हो सके तो उसको समतल पर लाना चाहता हूँ। उसमें अलग से मुनि हो कर निकल जाने से काम कैसे चलेगा? मेरा मार्ग मुनि से आगे का है। मुनि तो कोड़ा-कोड़ी हो गये, और वे लोक से पीठ फेर मोक्ष चले गये। लेकिन मैं लोक की अवज्ञा कर, अपनी मुक्ति की खोज में खो रहूँ, यह मेरे वश का नहीं। वह मेरा अभीष्ट नहीं।' ___ 'अभीष्ट तेरा जो भी हो। वह मैं कभी समझ न सकी, समझ भी न सकूगी। माँ हूँ तेरी · ·और मैं क्या जानं ? अन्न-वस्त्र तक से तझे बैर हो गया ? भोजन के थाल हर दिन अछूते लौट आते हैं। दो दिन में एक बार कभी एकाध कटोरी खाली लौटती है। ऐसे में हम कैसे खायें-पियें, जियें . . ? सोचा है कभी?' 'क्षत्राणी होकर इतनी अधीर हो गई तुम, अम्मा ? बेटा युद्ध की राह पर निकल पड़ा है, तो उसे बल दोगी कि नहीं ? योद्धा की माँ अबला और कायर हो जाये, तो कैसे चले ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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