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फल में पुंजीभूत, प्रमत्त लोक की हिंसा का विष वह चाट गया। अपने ही भाई के विपथगामी रक्त से उसने अपनी हत्या करवाली । सुन रहे हैं, महाराज, सत्यंधर कृष्ण ने, लोक के परित्राण के लिए, अपने वंश तक का मूलोच्छेद कर दिया! • मुझे इस क्षण उस कृष्ण की ज़रूरत है । . .'
मेरी आँखों में, लपलपाती ज्वाला की तलवार देख कर, दोनों राजपुरुष सहम उठे। मातामह मोह-कातर हो कर क्रन्दन-सा कर उठे :
'लिच्छवि कुल और वैशाली के विनाश के लिए ?' _ 'लिच्छवि कुल और वैशाली के चूड़ान्त उत्कर्ष के लिए ! · · ·और उसके लिए स्व-वंशनाश अनिवार्य हो, तो वह तक मैं चाह सकता हूं। ताकि ज्ञातुपुत्र वर्द्धमान महावीर का वंश लोक-परित्राता तीर्थंकर के तेज-गौरव से मंडित हो । वैशाली में त्रैलोक्येश्वर जिनेन्द्र भगवान का समवशरण रचा जाये । वैशाली लोक में तीर्थंकर का धर्मचक्र और मान-स्तम्भ हो कर रहे !'
'साधु-साधु, हमारे रक्त के लाडिले, तुम धन्य हो । तुम तो वज्रवृषभ-नाराचसंहनन के धारी सुने जाते हो, बेटा। अघात्य है तुम्हारी देह । अभेद्य हैं तुम्हारी वज की हड्डियां। किसी मर्त्य की तलवार तुम्हारा घात नहीं कर सकती । क्या तुम्हारी आँखों तले, मगध का साम्राज्य-लोलुप भेड़िया, तुम्हारी देव-नगरी वैशाली को निगल जायेगा. . . ? तुम्हारे धर्मचक्र प्रवर्तन में क्या विलम्ब है, वर्द्धमान ? वैशाली तीर्थंकर के समवशरण की प्रतीक्षा में है। . .'
'तीर्थंकर का कैवल्य-सिंहासन अब मगध के विपुलाचल पर बिछेगा, मातामह । मागध बिंबिसार को आप आज लोक के शत्रुत्व का प्रतीक मानते हैं न । उस शत्रु को जय करने के लिए उसी के राज्य में धर्म-चक्रेश्वर का धर्म-चक्र सर्व-प्रथम पृथ्वी पर उतरेगा। मागध प्रेम का प्यासा है, महाराज, वह सौन्दर्य का प्रेमी है। उसकी प्रेम की आग उसे चैन नहीं लेने दे रही । क्योंकि वह अनन्तकामी है, और उसके अनन्त-काम को जगत में तृप्ति नहीं मिल रही। उसकी साम्राज्य-लिप्सा में उसी निष्फल प्रेम की ज्वाला का प्रत्याघाती रूप प्रकट हुआ है। उसके स्वप्न को महावीर सिद्ध करेगा। मगध के विपुलाचल पर ही धर्म-साम्राज्य-नायक का सिंहासन बिछेगा। मागध उसका शरणागत आज्ञावाहक हो जायेगा, राजन् । और आप क्या चाहते हैं ? मैं छद्म गणतंत्र नहीं, एकराट् धर्म-साम्राज्य जम्बूद्वीप पर स्थापित देखना चाहता हूँ। वैशाली और मुझ से क्या चाहती है, आज्ञा करें, पितृदेव' · · !'
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