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. 'यही कि, वैशाली के संथागार में आओ, और उसके जनगण को अपना यह मंगल-संदेश सुनाओ, आयुष्यमान् ।'
'ठीक मुहूर्त के आवाहन पर, माँ वैशाली के चरणों में आऊँगा। भगवती आम्रपाली की सौन्दर्य-प्रभा से पावन वैशाली को एक बार देखना चाहता हूँ।'
मातामह आश्चर्य-स्तब्ध से मेरे अन्तिम वाक्य में खो गये । ऐसी प्रत्याशा उन्हें मुझ से नहीं थी। - एक गणिका, और भगवती ?
'मैं धन्य हुआ तुम्हें पाकर, बेटा। वैशाली तुम्हारे दर्शन को तरस रही है। वचन दो, शीघ्र आओगे !' .
'वर्द्धमान एक ही बार बोलता है, तात । वही अन्तिम होता है । आपूति वचन । ठीक मुहूर्त में, वैशाली मुझे अपने चरणों में पायेगी। '
दोनों पितृदेवों के चरणों को छू पाऊँ, उससे पूर्व ही मैं चार बाँहों में आबद्ध था। छूटना कठिन था। · पर एक झटके में मुक्त होकर, मैं तीर की तरह राजसभा-भवन पार कर गया । . . .
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