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________________ २२६ . 'यही कि, वैशाली के संथागार में आओ, और उसके जनगण को अपना यह मंगल-संदेश सुनाओ, आयुष्यमान् ।' 'ठीक मुहूर्त के आवाहन पर, माँ वैशाली के चरणों में आऊँगा। भगवती आम्रपाली की सौन्दर्य-प्रभा से पावन वैशाली को एक बार देखना चाहता हूँ।' मातामह आश्चर्य-स्तब्ध से मेरे अन्तिम वाक्य में खो गये । ऐसी प्रत्याशा उन्हें मुझ से नहीं थी। - एक गणिका, और भगवती ? 'मैं धन्य हुआ तुम्हें पाकर, बेटा। वैशाली तुम्हारे दर्शन को तरस रही है। वचन दो, शीघ्र आओगे !' . 'वर्द्धमान एक ही बार बोलता है, तात । वही अन्तिम होता है । आपूति वचन । ठीक मुहूर्त में, वैशाली मुझे अपने चरणों में पायेगी। ' दोनों पितृदेवों के चरणों को छू पाऊँ, उससे पूर्व ही मैं चार बाँहों में आबद्ध था। छूटना कठिन था। · पर एक झटके में मुक्त होकर, मैं तीर की तरह राजसभा-भवन पार कर गया । . . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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