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'लेकिन क्या, बेटा ?'
. . . 'फौलाद की तलवार से आगे, एक और तलवार है आत्मा की । जो एक ही अविभाज्य मुहूर्त में, विनाश और निर्माण एक साथ करती है। अब तक वह केवल आत्म-त्राण में नियोजित रही। हो सके तो मैं उसे आगामी युगों में लोकत्राण में नियोजित देखना चाहता हूँ। उस तलवार के अवतरण तक, मेरे लिए फ़ोलाद की तलवार को स्थगित रहना होगा। हो सके तो महावीर आगामी मन्वन्तरों में स्वयम् अमोध आत्म-शक्ति की वह तलवार होकर प्रकट होना चाहता है।'
'लेकिन तब तक लोक-व्यवहार कैसे चले ? आज, अभी क्या हो ?' ___ 'इसी से तो कहता हूँ, भन्ते तात, मुझे आज निष्काम योगीश्वर कृष्ण की ज़रूरत है । मुझे उस कर्म-चक्रवर्ती की ज़रूरत है, जो जन्मजात चक्रवर्ती था। उसके कोषागार में, त्रिखण्ड पृथ्वी का विजेता चक्र, स्वयम्भ रूप से जन्मा था। लेकिन उसने त्रिखण्ड पृथ्वी जीत कर भी, सिंहासन भोगना स्वीकार न किया। अपने काल के अनाचारी साम्राज्य-लोलुपों और सिंहासनधरों के सिंहासन उसने अपनी ठोकरों से चूर-चूर कर दिये। सिंहासन-भंजक हो कर आया था वासुदेव कृष्ण। सो स्वयम् अपने ही सिंहासन का उसने सब से पहले भंजन किया। और तब उसकी कल्याणी ठोकर इतनी तेजोमान हो उठी, कि लोक के सारे अत्याचारी सिंहासन और व्यक्ति उसके दर्शन और छुवन मात्र से भस्म हो गये । सत्य, न्याय, अहिंसा, प्रेम और अपरिग्रह का मूर्तिमान कर्म-विग्रह था कृष्ण । भगवती महासत्ता ने उसके भीतर कर्म-चक्रवर्ती, लोक-त्राता शक्ति के रूप में अवतार लिया था । तलवार की धार की तरह खरतर थी उसकी सत्य-निष्ठा, न्यायनिष्ठा और वीतरागता । ऐसी वीतरागता और समता का वह स्वामी था, कि लोक के कल्याण के लिए उसने स्व-वंश नाश का ख़तरा तक उठा लिया । अपनी लीला से उसने छप्पन करोड़ यादवों की देव-नगरी द्वारिका में आग लगा दी। और स्वयं इस कामराज्य से निर्वासित हो गया, ताकि वह इसके दुश्चक्र को तोड़ सके । अंतिम सांस तक इस दुश्चक्र के भेदन, और धर्मराज्य के प्रवर्तन का महाभाव और महाप्रयत्न उसकी आत्मा में चलता रहा। उसने इस कामराज्य के महल में नहीं, जंगल के एकान्त में ओझल , मनुष्य की आँख से ओझल, मर जाना पसन्द किया। हिंसामत्त लोक के पारधी का तीर अपनी पगतली की जीवनमणि में बिंधवा कर उसने आत्मोत्सर्ग कर दिया, आत्माहुति दे दी। उस तीर के
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