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निष्कषायता में सन्देह है ! हमारी इस आत्म-रक्षा की भावना में सत्ता और सम्पत्ति के अधिकार और परिग्रह का चोर छुपा बैठा है।' - 'वर्द्धमान, तुम हमारे लिए बहुत कठिन कसौटी प्रस्तुत कर रहे हो। हमें हमारी सामर्थ्य से परे कस रहे हो ।'
'निश्चय ही कगा, बापू ! क्योंकि आप मेरे स्वजन हैं, आप मेरे रक्त हैं। क्योंकि हम लिच्छवि ऋषभ और भरतेश्वर जैसे निष्काम कर्म-योगियों के वंशधर हैं । मेरा दावा आप पर न हो, तो किस पर हो ? वैशाली में मेरे मत तीर्थंकर का धर्म-सिंहासन बिछा है। मैं उसे महान देखना चाहता हूँ। मुझे यह असह्य है कि वैशाली स्वार्थ, सुविधा और समझौते की राजनीति का खिलौना बने । कि वैशाली लोक के आदिकालीन मिथ्यात्व की शृंखला की कड़ी बने । मैं यह देखना चाहूँगा, कि वैशाली' असत्य और हिंसा के उस आदिम दुश्चक्र का भेदन करे । वह पहल करे। वैशाली यदि यह नहीं करती, तो उसका विनाश अनिवार्य है।'
'वर्द्धमान, तुम अपने ही प्रति बहुत कठोर हो रहे हो !' .
'वर्द्धमान सब से पहले, अपने ही भीतर छुपे बैठे शत्रु का संहार करता है, राजन् ! यही उसके होने का प्रयोजन है। वर्द्धमान आत्म-अरिहन्ता अरिहन्तों की अजेय परम्परा का सूत्रधार है, भन्ते तात !'
तो फिर तुम्हीं वह निष्काम और निष्कषाय तलवार, अरिहन्तों की शासनभूमि वैशाली की रक्षा के लिए उठाओ, वर्द्धमान ! . . . '
'वह तलवार उठाने की अपनी योग्यता और सामर्थ्य में मुझे रंच भी सन्देह नहीं है, महाराज । अनिवार्य हुआ तो उठाऊँगा तलवार, आप निश्चिन्त रहें। पर अपनी नियति को मैं जानता हूँ। मेरा चक्रवर्तित्व धर्म-साम्राज्य का होगा, कर्म-साम्राज्य का नहीं। महासत्ता ने मुझे उसी आसन पर नियोजित किया है। इसी से इन सारे अनाचारों के सम्मुख मैं चुप हूँ, और लोक की वेदना के विष को चुपचाप अपने एकान्त में पी रहा हूँ और पचा रहा हूँ। क्या आप सोचते हैं, महाराज, लोक में धर्म के नाम पर चल रहे इन दानवीय सर्वमेधयज्ञों से मैं अनभिज्ञ और अस्पर्शित हूँ ? असंख्य निर्दोष प्राणियों की चीत्कारें और क्रन्दन मेरी आत्मा में अनहद नाद बन कर निरन्तर गूंज रहे हैं, देव ! मेरी वह नियति होती, बापू, तो अब तक लोक मेरी निष्काम तलवार के तेज से जाज्वल्यमान हो चुका होता । लेकिन · · ·।'
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