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तक की बाधा यहाँ अति अल्प हो गई है। बाईस पक्ष में एक बार श्वास लेता हूँ। तन भी शुक्ल है, मन भी शुक्ल है । क्षुधा की व्याधि नाममात्र रह गई है । बाईस हजार वर्ष में एक बार, इच्छा होते ही, मन में अमृत झरने लगता है । सहज तृप्त हो जाता हूँ।
जाने कितनी महिषियों हैं मेरी । उन सुदूर तट-वेदियों के हेम प्रासादों में वे स्वच्छन्द आमोद-प्रमोद करती हैं। उनके प्रासादों से भी ऊँचे हैं, मेरी वल्लभाओं के प्रासाद-शिखर । एक अनोखा विदग्ध सुख है, स्वाद है उनके अनुराग और सौन्दर्य का : जो महिषियों से आगे का है। एक स्वच्छन्द आत्म-सम्वेदन । और फिर दुर्दाम विलासिनी कितनी ही गणिकाएँ, अप्सराएँ । एक विलक्षण उन्मादक आनन्द है, उनकी रति में। ये सब मेरे सहज अधीन हैं । इनके पास मुझे जाना नहीं होता । चित्त में काम की तरंग उठते ही, इनमें से किसी के भी साथ, आत्म-रमण का-सा सुख पा लेता हूँ। एक स्वाधीन रभस, स्पर्श का तरंगिम सुख । किसी सघन द्रव्य-संसर्ग के बिना ही, विशुद्ध और सूक्ष्मतम, यह परस-सुख है । एक तात्विक स्पर्श ।
आत्मा का भाव, दर्शन और ज्ञान इतना उज्ज्वल और शुद्ध है कि, अन्तर में ऊर्ध्व तरंग उठते ही, ज्योतिर्मय अर्हत् और ज्ञानाकार सिद्ध के दर्शन हो जाते हैं । . . . देह, प्राण, मन, इन्द्रियों का सूक्ष्मतम अनुबन्ध है मेरा यह दिव्य अस्तित्व । इन्द्रियां मात्र विशुद्ध पंच तन्मात्राएँ हैं । प्रकृत और तात्विक है मेरी रूप, रस, गंध, वर्ण, ध्वनि की चेतना । इनकी अनुभूतियाँ मेरी अन्तश्चेतना की धारा में कहीं बाधक नहीं। निर्बाध सुख की इस निमग्नता में बाईस सागर जाने कब बीत गये, पता ही न चला । काल और अवकाश भी जैसे इस सुखलीनता में अन्तर्मुख होकर
· · 'जाने क्यों, कैसे सुख-भोग की यह समाधि, आज एकाएक भंग हो गई है ! निमग्नता टूटी है : उन्मग्न हो उठा हूँ। एक उन्मनी चेतना के तट पर आ बैठा हूँ । भोग्य से उद्भिन्न होकर, भोक्ता भोग की इस पराकाष्ठा को, उसके सीमान्तों पर विलय पाते देख रहा है। मेरी यह सहजात माला, अनायास आहत और कम्पित हो उठी है। मानो कुछ व्यतीत हो गया है, अतीत हो गया है । स्वप्न की रत्नतरंगिम मायापुरी लुप्त होती-सी लग रही है । . . .
मृदुलता, सौरभ, संगीत का यह स्निग्ध प्रवाह, एकाएक किसी अदृश्य चट्टान से टकरा कर चूर-चूर हो गया है । विनाश के तट पर आ खड़ा हुआ हूँ, मृत्यु की
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