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________________ की एक दिव्य सुन्दर माला झूल रही है। सहजात माला। उसकी सुगन्ध, मानो अपनी ही अन्तर्तम सुगन्ध है। · · · लगा, यही मेरा प्राण है। ___.एक गहन गगन-घोष के साथ कक्ष में एक द्वार खुला, जो पहले कभी नहीं खुला था । रूप-लावण्य की तरंगों-से हजारों देव-देवांगनाओं ने 'जय नन्द, जय नन्द !' पुकारते हुए आकर मुझे घेर लिया। • फिर मुझे ले जाकर, अच्युता नाम की इन्द्र-सभा में, पीताभ रत्न के एक गरुड़ाकार सिंहासन पर मेरा अभिषेक किया गया। - तब से आज बाईस सागर बीत गये हैं, इस अच्युत स्वर्ग के ऐश्वयं में विलास करते हुए। अवकाश, विस्तार, काल यहाँ मानो गणना से परे स्वायत्त हो गये हैं। असंख्य योजनों में फैला है मेरा यह पुष्पोत्तर विमान । हजारों देवदेवांगनाएँ प्रतिपल मेरी सेवा में उपस्थित हैं। नीलराग, पद्मराग, पीतराम रत्नों के अकृत्रिम द्रहों में, वे जीवन्त रत्न ही विचित्र सुरभित जल बन गये हैं। उनमें अपनी महिषियों और वल्लभाओं के साथ नित्य स्नान-केलि । ये इतनी सारी प्रियाएँ, जो मेरी ईहा से ही उत्पन्न काम-कन्याएँ हैं। लक्षावधि वर्षों से इनके भीतर रमण किया है, पर ये सदा कुँवारी हैं। अविक्षत है इनका रूप, लावण्य, सौन्दर्य । मानो क्षय ही नहीं होता, चुकता ही नहीं । पदार्थ और उसका भोग यहां सूक्ष्मतम हो गया है । भौतिक पुद्गल द्रव्य का इससे सूक्ष्म रूप संभव नहीं । धातु-मुक्त है मेरा यह दिव्य शरीर । इसमें रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि, स्नायुजाल, कुछ भी नहीं है । विशुद्ध, तरल, सुनम्य पुद्गल द्रव्य से यह निर्मित है। कैसा अव्याबाध लोच है, लचीलापन है, मेरी इस तन्वंगी काया में। स्वाधीन विक्रिया शक्ति से यह संपन्न है। इस एक शरीर को अनगिनत बना सकता हूँ । मूल शरीर यहीं रहता है : और जब चाहूँ, मनचाहा इच्छा-शरीर धारण कर चाहे जहाँ जा सकता हूँ, चाहे जो हो सकता हूँ । यहाँ रहते हुए भी, स्वयम्भु-रमण समुद्र के तटवर्ती लवंगलता-वन में, अपनी ईहा मात्र से अपनी मनचाही महिषी और वल्लभा के साथ क्रीड़ा-केलि कर सकता हूँ। कभी मानुषोत्तर पर्वत के शिखर पर, कभी हिमवान के निर्झर-तटों पर, तभी विजयार्ध की रत्न-गुफाओं में, कभी तीर्थंकर के समवशरण में, कभी नरकों की यातनाक्रान्त पृथ्वियों में। इतनी शक्ति है मुझमें कि जम्बूद्वीप को, अपनी हथेलियों में मनचाहा उलटपलट सकता हूँ : वहाँ के जीव मात्र का पोषण या विनाश कर सकता हूँ। - श्वास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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