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________________ • शरीर बहुत कम हो गया। ईहा और कषाय मुझे कस नहीं पाते थे। .. तो मेरी वह देह विसर्जित होकर, सहस्रार स्वर्ग के अपरूप कमनीय देव के रूप में जन्मी । • "दिव्यांग कल्प-वृक्षों तले आलोटते, हर इच्छा सहज तृप्त होती । इस स्निग्धता में एक विचित्र मृत्यु-सी अनुभव होती । सहस्रों कल्पों की आयु असह्य लगी। · · · उत्तीर्ण था भीतर । नियत मुहूर्त में जन्मान्तर से गुज़रा । जम्बूद्वीप की जम्बू-श्याम कसली धरती ने फिर खींचा। छत्रा नगरी का नंदन राजा, मैं । राजश्वर्य सहज ही भोगते बनता है। भोगू, ऐसी कोई संवासना मन में नहीं है। अपना या बिराना, जैसा कुछ लगता नहीं। जो है ठीक है, अपनी जगह पर है। मैं अपनी जगह पर हूँ। अपने आप से ही तुष्ट हूँ। कण-कण अपना ही लगता है। सकल चराचर को सहज देखता हूँ, जानता हूँ, यथार्थ स्वरूप में पहचानता हूँ। सब का अवबोधन अव्याबाध है, शुद्ध है । जैसे अपने और सर्व के विशुद्ध दर्शन में जीना चल रहा है । निरावेग, सरल, ऋजुगति से बहती कोई नदी हूँ। कहाँ जाना है, क्या करना है, इसकी कोई सतर्कता नहीं, संकल्प भी नहीं । सो विकल्प भी नहीं। नदी जो तटवर्ती कण-कण की वल्लभा है, मां है। सर्वोदय और सर्वकल्याण के अतिरिक्त और कोई काम्य अब शेष नहीं।. ___• एक दिन वन-विहार में देखा, प्रकृति के केन्द्र में एक प्रकृत पुरुष निश्चल खड़ा है। जातरूप नग्न । उस पुरुष के आभावलय में सारी प्रकृति अनावरित होतीसी लग रही है । कण-कण पारदर्शी हो उठा है। · · रहस्य खुलते ही चले जा रहे हैं। जानने और देखने का अन्त नहीं। · ·उस पुरुष को देखकर मेरे शरीर के वस्त्राभरण यों उतर गये, आपोआप, जैसे ऋतुकाल पाकर सर्प की कंचुकी अनजाने ही उतर गई है । · ·और मैं भीतर की राह अनन्त में अतियात्रित हो चला। · ·उस भीतरी यात्रा में कहीं एक पद्म का द्रह आया। 'उषा का सरोवर था वह जैसे । अनुराग के इस सूक्ष्म गुलाबी जल में अपने को डूबता, तैरता पाया। और जाने कब आत्म-विस्मृत हो गया । . . · · · देख रहा हूँ : एक सुनील जलकान्त स्फटिक कक्ष में, एक अपूर्व सुरभित शैया में से अंगड़ाई भर कर जाग उठा हूँ। विचित्र है नीलाभ नीहार का यह महीन कक्ष, जो चारों ओर से बन्द है । उठते ही संचेतना-सी हुई, यह स्वर्ग का उपपाद कक्ष है। इसकी महाघ शैया में से मैं देव के रूप में जन्मा हूँ। · · 'अच्युत स्वर्ग का इन्द्र-मैं-अच्युतेन्द्र । और मेरे गले में ठीक मेरे शरीरा के ही द्रव्य और वर्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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