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________________ बींधती, अपने ही में से निष्क्रान्त होने को छटपटा रही थी। • कूट पर से वे युगल मुनि कुमार फिर बोल उठे : 'वनराज, त्रिलोक के भावी सम्राट हो तुम । जानो, और देखो। सकल चराचर, तुम्हारे उन्मुक्त, अकारण प्रेम की प्रतीक्षा में है । - तीर्थंकर वर्द्धमान' · · !' · · · मैं चित्र-लिखित सा रह गया। सारा कान्तार मेरे भीतर संचरित हो गया। शांत और निस्पन्द, सब को समाथे-सा विचरता हूँ। इस वनभूमि में ऐसा कभी नहीं हुआ पहले ।' : 'मृग और शशक मेरी छाती में सुख की नींद सोते हैं । पंखी मेरी अयाल में नीड़ बनाकर रहते हैं । मयूर मेरे माथे पर कलगी बनकर नाचता है। चिरकाल की भूख शान्त हो गई है । · · इन सब को देखता हूँ, कण-कण मेरी आँखों में खुलता चला जाता है । कैसी विचित्र संतृप्ति है यह · · ! बिन खाये ही सारा वन मेरा आहार बना हुआ है । ___.. देख रहा हूँ, अब आगे की गेल उजियाली है । सुगन्धित भी । वसन्त के मंजरी छाये पथ पर जैसे यात्रा हो रही है । · पुष्कलावती देश, पुण्डरीकिणी नगरी । राजा सुमित्र और रानी मनोरमा का पुत्र मैं, प्रियमित्र । आपोआप ही जन्मे मेरे कोषागार में चौदह रत्न, सारी संभव ऋद्धि-सिद्धि, सुख-सुषमा के स्रोत । ससागरा पृथ्वी के षट्खण्ड मेरे चरणों पर नमित हैं : छियानवे हज़ार रानियों का रमण मैं-एकमेव, अकेला पुरुष : प्रियमित्र चक्रवर्ती । खण्ड-प्रपाता गुफा के वज्र कपाट खोलकर, मेरा पराक्रम-रत्न उसका भेदन करता चला जा रहा है । उस पार अखण्ड-प्रपाता गुहा के द्वार पर, गंगा के समुज्ज्वल तट देश में सिद्धियाँ, और निधियाँ मेरी प्रतीक्षा में खड़ी थीं।.चौदह महा रत्नों का स्वामी, नव निधियों का ईश्वर मैं । प्रियमित्र चक्रवर्ती ! तन-मन की हर कामना पूरित । इतनी कि एक जड़त्व से घिर गया। एक उपरामता । एकरस, धृष्ट भोग । कोई नाविन्य नहीं, गति नहीं, विकास नहीं, प्रकाश नहीं। मणिदीपों की ठहरी हुई प्रभा । एक दुहराव के अतिरिक्त और कुछ नहीं । । । __• तभी सम्बुद्ध अर्हत् क्षेमंकर के समवशरण में सुना : 'तत्व कटस्थ नहीं, परिणामी है। उसे यथार्थ जानना, नित-नवीन में जीना है । नित नये फलोद्यानों में रसपान । पुराना, जड़ वह है जो पर्याय से चिपटा है। पुरुष और पर्याय दोनों प्रतिक्षण न ये हैं। उन्हें जानो, और सदा यौवन, सदा वसन्त भोगो, जियो !' ___.. एक नयी आँख खुल गई । महल से निष्क्रान्त होकर, मन्दरचारी हो गया । हवाओं में महकते मलयवन : उस गन्ध में सूक्ष्म और स्थूल की अनुभूति समरस यी। बिना किसी बन्धन के सभी कुछ तो भोग रहा था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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