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का अन्तिम और अनिवार्य विधाता मानकर, उसे सर पर धारण किये फिरना, क्या जिनेश्वरों के स्वतंत्र पुरुषार्थी धर्म, और आत्मा की मूलगत स्वतंत्रता की अवहेलना नहीं है ? मानो कि चैतन्य आत्मा कर्म की निर्णायक नहीं, जड़ कर्म चैतन्य आत्मा के निर्णायक हैं। यह जिनेंद्र के स्वतंत्र आत्मधर्म का द्रोह और अपलाप है। जिनेन्द्र की अनेकान्तिनी और अनेकार्थी वाणी के मनमाने तार्किक अर्थ और व्याख्याएं करके, जड़धर्मी स्थापित स्वार्थियों ने अपने स्वार्थों की पुष्टि-तुष्टि के लिए, जिनवाणी की आड़ में, जड़ कर्म को चैतन्य आत्मा के सिंहासन पर विधाता बना कर बैठा दिया है। वर्ना तो, स्वतंत्र आत्मशक्ति में निश्चय ही यह सामर्थ्य है, कि वह अपने स्वतंत्र पुरुषार्थ से केवल पारमार्थिक मुक्ति ही नहीं प्राप्त कर सकती, बल्कि इस प्रापंचिक विश्व में उच्च आत्मलक्ष्यी मुक्ति की व्यवस्था को, अपने उच्चतर विकास की आवश्यकतानुसार स्वतंत्र रूप से रच सकती है . . .!'
'तब तो व्यक्तियों के व्यक्तिगत पापोदय, पुण्योदय की व्यवस्था निरर्थक सिद्ध हो जाती है।'
'निश्चय ! यह सब स्थापित स्वार्थी बलवानों की, निर्बलों को सदा निर्बल और अपने दास बनाये रखने की जड़ कामिक व्यवस्था है। स्वतंत्र और सतत परिमणनशील आत्म-तत्व में अन्तिम रूप से पाप या पुण्य जैसा कुछ नहीं है। कामना से प्रेरित हो कर ही तो व्यक्ति तदनुसार कर्म बाँधता है। शुभ कामना से व्यक्ति पुण्य बाँधता है, अशुभ कामना से पाप । पुण्य कर्म के फल-स्वरूप व्यक्ति विपुल सांसारिक विभूति पा कर प्रमत्त होता और फिर अनन्त पाप बांधता है। तब पापोदय और पुण्योदय में क्या अन्तर रह जाता है ? पुण्यवान कहे जाने वालों को, मैंने पापी कहे जाने वालों से अधिक पापात्मा, स्वार्थी और शोषक ही देखा है। और जो लोग पापोदय से लोक में निर्धनता, शोषण, नाना यातना झेलने वाले कहे जाते हैं, उन्हें मैंने हृदय से प्रायः अधिक निर्मल, सज्जन, परदुख-कातर देखा है। तब तो तथाकथित पुण्यवान से, तथाकथित पापी होना ही मेरे मन, अधिक अभीष्ट और उच्चतर आत्म-स्थिति है। स्वार्थ-लक्ष्यी, सकाम कर्म से ही मनुष्य जड़ कर्मपाश में बँधता है। उसमें पुण्य और पाप का यह स्थूल भेद, दरअसल व्यक्ति की असली आत्मस्थिति का निर्णायक नहीं हो सकता। पुण्यवान कहे जाते राजाओं और श्रीमन्तों के पापाचारों, बलात्कारों, शोषणों, दुष्कर्मों, स्वार्थों का अन्त
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