________________
२०७
व्यष्टि और समष्टि दोनों ही की मुक्ति का अपूर्व रचनात्मक विधाता होगा। उसकी प्रतीक्षा करें, वैशालीनाथ !'
'इसमे बड़ा आनन्द का सम्वाद क्या हो सकता है, कि कोई ऐसे तीर्थकर आने वाले हैं, जिनका उपदेश केवल व्यक्ति के लोकोत्तर मोक्ष का ही मार्गदर्शक न होगा, बल्कि जो लोक की सामुदायिक मुक्ति और उसकी सर्वमंगलकारी, सम्वादी और समवादी मुक्ति का भी विधायक होगा । लेकिन तब तो प्राणियों के वैयक्तिक कर्मबंध, पाप-पुण्य का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। आखिर तो व्यक्ति, वस्तु और अन्य व्यक्तियों के प्रति, अपनी आत्मपरिणामगत प्रतिक्रिया से ही कर्मबन्धन करते हैं। ऊँच-नीच, कुरूप-सुरूप, धनी-निर्धन, सुखी-दुखी मनुष्य अपने गोत्रकर्म, नामकर्म, अन्तराय कर्म, वेदनीय कर्म आदि कर्मों के फल-स्वरूप ही तो होता है ?'
__'तात, हम समझें, कि आखिर कर्म-बंध है क्या वस्तु ? नित्य के जीवनव्यवहार में प्राणि, अन्य प्राणियों और पदार्थों के प्रति जो शुभ-अशुभ, रागद्वेषमूलक भाव करता है, उसीसे तो वह पाप या पुण्य कर्म बाँधता है। यानी शुभाशुभ भाव, प्रतिक्रिया और कर्म करने को व्यक्ति स्वतंत्र है। यह उसकी आत्म-सत्ता के अधीन है, कि वह अन्य के प्रति क्या भाव रक्खे, कैसे बरते । जड़ कर्म-परमाणुओं की क्या ताक़त, कि मनुष्य के न चाहते उसकी चैतन्य आत्मा को बाँध लें। यानी प्रथमतः जड़ कर्म-परमाणु, चैतन्य आत्मशक्ति के अधीन हैं। आत्मा अपने स्वाधीन संकल्प से कर्म करने, या कर्मबंधन को स्वीकारने या नकारने को स्वतंत्र है। तब पहले अविवेक या अज्ञान से कोई कर्मराशि व्यक्ति बाँध चुका हो, तो इस जीवन में अपने सद्ज्ञान और सद् संकल्प से वह उसे तोड़ या बदल न सके, तो आत्मा की स्वतंत्रता या मुक्ति का क्या अर्थ रह जाता है ? आप तो जानते हैं, ये वर्तमान वर्ण, जाति, गोत्र, ऊँच-नीच की व्यवस्थाएँ कुछ बलवानों द्वारा निर्बलों पर आरोपित बलात्कार हैं। जिनेश्वरों ने इन भेदों को मूलगत या जन्मजात नहीं स्वीकारा। व्यक्ति अपने स्वतंत्र भाव, पुरुषार्थ, आचार और व्यवहार से इन्हें बदल देने को स्वाधीन है। वर्ण-व्यवस्था, और वर्ग-व्यवस्था व्यक्ति की तात्कालिक योग्यता और रुचि के अनुसार नियोजित एक कर्म-विभाजन मात्र है। व्यक्ति अपने स्वतंत्र संकल्प से अपनी आत्मिक उन्नति करके, इन बाहरी भेदों और विभाजनों की सीमा तोड़ कर, उच्च कक्षा में पहुँच सकता है। फिर, पूर्वोपार्जित जड़ कर्म को ही प्रस्तुत जीवन-व्यवस्था और समाज-व्यवस्था
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org