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________________ २०६ समस्त विश्व के सामुदायिक कल्याण और उत्कर्ष की शक्तियों का भरपूर परिचय हमें मिलता है। वे शक्तियाँ तो अमोघ होती हैं, और पूर्ण वेग से प्रवाहित होती हैं। तत्कालीन लोक में वे चमत्कारिक मांगलिक क्रांति भी घटित करती हैं। पर प्राणियों में श्रेष्ठ और सर्वाधिक सज्ञान हम मनुष्य अपने कषायों और स्वार्थों से इतने अन्धे होते हैं, कि उन शक्तियों के प्रभाव को पूर्ण रूप से ग्रहण कर, उनके आधार पर विश्व का सर्वकल्याणकारी मांगलिक रूपान्तर करने का पुरुषार्थ हम जान-बूझकर नहीं करते। सर्वज्ञ तीर्थंकर के उपदेश में तो वैयक्तिक और सार्वजनिक अभ्युदय और मुक्ति का विधान संयुक्त रूप से समाहित होता है। वह वाणी तो अनेकान्तिनी, और अनन्त सम्भावी होती है। हमारे द्वारा उसका ग्रहण ही सीमित, एकान्तिक और स्वार्थिक होता है। सो हम उस वाणी की प्रमादी और स्वार्थ-सीमित व्याख्या करके लोक को भ्रम में डाले रखते हैं। वर्ना मूल में तो तीर्थंकर के अवतरण और उसकी दिव्य ध्वनि में, व्यष्टि और समष्टि के लौकिक और लोकोत्तर सर्वाभ्युदय और मुक्ति का अमोघ मंत्र समाया रहता है। - क्या कर्म-भूमि के आद्य तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के जीवन-काल में लोक का सर्वांगीण और सार्वजनिक अभ्युत्थान नहीं हुआ था ? तब मानना होगा कि वह सर्वकाल सम्भव है। हम स्वार्थी श्रोताओं ने और सीमित ज्ञानी श्रतकेवलियों ने तीर्थंकर की कैवल्य-वाणी की सीमित और मनमानी व्याख्याएँ की हैं। इसी से सार्वजनीन लोक के, सर्वाभ्युदयी कल्याण को धारा भंग हुई है। कल के विगत तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ तक की कैवल्य-वाणी में वही सर्वाभ्युदयी कल्याण का मंत्र मैं आज भी स्पष्ट सुन रहा हूँ। उसमें केवल वैयक्तिक कर्मनाश ही नहीं, किन्तु समष्टिगत अनिष्ट कर्मनाश और सर्व के अचूक पुण्योदय और पूर्ण उत्कर्ष का इन रहस्य समाया है। मैं उसे प्रत्यक्ष अनुभूत कर रहा हूँ। भीतर साक्षात् कर रहा हूँ। अब तक जो न हो सका, आगामी तीर्थकर उस सम्भावना का रहस्य जगत पर खोलने को आ रहा है।' 'वर्द्धमान, तो क्या यह तीर्थंकर अपूर्व होगा? अब तक के तीर्थंकर अपूर्ण ज्ञानी थे?' 'हर तीर्थंकर पूर्णज्ञानी, किन्तु अभिव्यक्ति में पिछले से फिर भी अपूर्व, अधिक प्रगतिमान हुआ है। वैसा न हो, तो सत्ता की अनन्तता का क्या अर्थ रह जाता है ? आगामी तीर्थंकर भी अपूर्व प्रगति का सन्देशवाहक होगा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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