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________________ २०९ नहीं । उन्हें पुण्यवान कहने से बड़ा व्यंग और मिथ्यात्व और क्या हो सकता है ? और पापी कही जाने वाली वेश्या को मैंने तथाकथित सती से कहीं अधिक उज्ज्वल चरित्र पाया है। पाप के फलभोगी कहे जाते दरिद्र और दुखी को, मैंने अत्यन्त उदात्त, पवित्र, और शुद्ध आत्मा भी पाया है। ये सारे भेद बहुत उथले, अटकलपंचू, आनुमानिक और स्वार्थी धर्म-व्याख्याताओं की देन हैं ?' 'वर्द्धमान, तब तो लोक के जो शलाका-पुरुष, तीर्थकर, चक्रवर्ती अनन्त वैभव के भोक्ता और स्वामी होकर जन्म लेते हैं, वे पुण्यात्मा नहीं, पापात्मा ही कहे जा सकते हैं? 'महाराज, आप क्या यह नहीं जानते, कि तीर्थंकर ने लोक की सम्पत्ति के व्यक्तिगत संचय और स्वामित्व को परिग्रह का महापाप जाना, इसी से वे राज्य और सम्पदा को ठोकर मार कर, अकिंचन हो गये। जो तीर्थकर चक्रवर्ती होकर जन्मे, उन्होंने भी अपनी चक्रवर्ती सम्पदा को पाप और बन्ध का मूल जान कर, काकबीट की तरह त्याग दिया । क्या जिनेश्वरों ने सारे पापों का मूलभूत महापाप परिग्रह को ही नहीं बताया है ? तथाकथित पुण्योदय और पापोदय, अन्ततः दोनों ही, वैयक्तिक आत्मा और लोक की जीवन-व्यवस्था के घातक हैं। वे व्यक्ति और विश्व की कल्याणी व्यवस्था के भंगकर्ता, अपहर्ता और समान रूप से लौकिक और लोकोत्तर मुक्तिमार्ग के अवरोधक हैं। लोक की विषम व्यवस्था को जो जीवों के पुण्य-पाप पर आधारित बताया जाता है, यह सम्यक् दर्शन नहीं है, महाराज। इस विसम्वादी, असमवादी व्यवस्था का आधार, कोई पारमार्थिक तत्व नहीं, स्वार्थिक अज्ञान और बलात्कार है।' ___तो फिर लोक-जीवन की कल्याणी क्रान्ति के सन्दर्भ में, तुम कर्म-बन्धन को कैसे व्याख्यायित करते हो, बेटा ?' - 'कर्मोदय केवल वैयक्तिक ही नहीं, सामुदायिक भी होता है, बापू । एक ही नाव में बैठे सौ व्यक्ति एक साथ डूब जाते हैं। एक काल या देश विशेष में, लाखों प्राणी एक बारगी ही दुर्भिक्ष, महामारी, प्रलयंकर बाढ़ों के ग्रास हो जाते हैं : या करोड़ों प्रजा एक साथ उत्कर्ष और सर्वांगीण सुख की सीमा - छू लेती है। · कर्म-बन्धन अन्ध, अज्ञान-जन्य वस्तु है, गणनाथ । कर्म हमारा विधाता नहीं, हम कर्म के विधाता हैं। कर्म स्वीकारने, पालने, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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